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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५८ क्योंकि अनुभूति के समय उपयोग आत्मा में ऐसा लीन हुआ है कि उसमें इन्द्रियों का तथा मन का अवलम्बन छूट गया है, इसलिये उससमय प्रत्यक्षपना है। अहा ! उस काल के अद्भुत निर्विकल्प आनन्द का क्या कहना !
देवियों ने प्रसन्नता से कहा – हे माता ! आपने अनुभूति की अद्भुत बात समझाई, मानों आपके अन्तर से कोई अलौकिक चैतन्यरस झर रहा हो। यह आपके अन्तर में विराजमान तीर्थंकर के आत्मा की अचिन्त्य महिमा है ! उन बाल-तीर्थंकर को गोद में लेकर हम कृतार्थ होंगे।
इसप्रकार धर्मचर्चा द्वारा आनन्दमय उत्तम भावना भाते-भाते सवा नौ मास आनन्दपूर्वक बीत गये और तीर्थंकर के अवतार की धन्य घड़ी आ पहुँची।
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मामा-मंगल बधाई
वैशाली में महावीर-जन्म की मंगल बधाई ! आज तो बधाई राजा सिद्धारथ दरबार जी.... । त्रिशलादेवी कुँवर जायो जग का तारणहार जी....॥ वैशाली में नौबत बाजे देव करें जयकार जी....। भव्यों के इस भाग्योदय से हर्षित सब नरनार जी...॥ आतमा को धन्य करने, समकित को उज्ज्वल करने।
बाल-तीर्थंकर दर्शन करने, चलो जायें वैशाली में। (इस पुस्तक के लेखक ने वीर सं. २५०२ की चैत्र शुक्ला १३ को मंगलदिवस वीर जन्मधाम वैशाली में आनन्द पूर्वक मनाया था; इस पुराण का कुछ भाग वहीं रहकर लिखा है और वीरप्रभु की रथयात्रा के समय इसकी पाण्डुलिपि को रथ में विराजमान करके उसकी पूजा की है।)