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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५७ -ऐसे भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रश्नोत्तर हुए और धर्मचर्चा चली। कई बार तो ऐसा होता था कि माताजी प्रश्न पूछे तब देवी को उत्तर न आता हो; किन्तुज्यों ही माताजी के उदर में विराजमान तीर्थंकर का स्मरण करें कि तुरन्त उत्तर आ जाता था। मानों प्रभु स्वयं ही उदर-भवन में बैठे-बैठे सब प्रश्नों के उत्तर दे रहे हों। उदरस्थ आत्मा
अवधिज्ञानी है और उनकी सेवा करनेवाली देवियाँ भी अवधिज्ञानी हैं। उनमें से कुछ तो सम्यग्दर्शन को प्राप्त हैं और कुछ प्राप्त करने में तत्पर हैं - ऐसी वे देवियाँ माता से पूछती हैं -
हे माता ! अनुभूति स्वरूप परिणमित आत्मा आपके अन्तर में विराजमान है, तो ऐसी अनुभूति कैसे होती है ? वह समझाइये न ! - माता ने कहा - हे देवी ! अनुभूति की महिमा अति गम्भीर है। आत्मा स्वयं ज्ञान की अनुभूति स्वरूप है। उस ज्ञान की अनुभूति में राग की अनुभूति नहीं है। जब ऐसा भेदज्ञान होता है, तब अपूर्व अनुभूति प्रगट होती है। दूसरी देवी ने पूछा - हे माता ! आत्मा की अनुभूति होने से क्या होता है? __सुनो देवी ! अनुभूति होने पर सम्पूर्ण आत्मा स्वयं अपने में स्थिर हो जाता है; उसमें अनन्त गुणों के चैतन्यरस का ऐसा गम्भीर वेदन होता है कि जिसके महान आनन्द को अनुभवी आत्मा ही जानते हैं; वह वेदन वाणीगम्य नहीं होता। __ हे माता ! वाणी में आये बिना उस वेदन की खबर कैसे पड़ती है ?
हे देवी ! अन्तर में अपने स्वसंवेदन से आत्मा को उसका पता चलता है। जैसे यह शरीर दिखाई देता है, वैसे ही अनुभूति में शरीर से भिन्न आत्मा शरीर से भी विशेष स्पष्ट' दृष्टिगोचर होता है। .
हे माता ! आँखों से शरीर दिखाई देता है उसकी अपेक्षा आत्मा के ज्ञान को विशेष स्पष्ट क्यों कहा?
हे देवी! आँख द्वारा जो शरीर का ज्ञान होता है वह तो इन्द्रियज्ञान है, परोक्ष है; और आत्मा को जाननेवाला स्वसंवेदनज्ञान तो अतीन्द्रिय है, प्रत्यक्ष है; इसलिये वह अधिक स्पष्ट है।
अनुभूति के काल में तो मति-श्रुतज्ञान हैं; तथापि उन्हें प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय क्यों कहा?