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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५४ त्रिशलादेवी सचमुच भरतक्षेत्र की अद्वितीय नारी-रत्न थीं। गौरववन्ती वैशालीकुण्डपुर की शोभा अयोध्या नगरी जैसी थी; उसमें तीर्थंकर के अवतार की पूर्व सूचना से सम्पूर्ण नगरी की शोभा में और भी वृद्धि होगई थी....जिसप्रकार मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की तैयारी होने पर आत्मा का रूप बदल जाता है और आनन्द की ऊर्मियाँ उठने लगती हैं, तदनुसार जिनराज के अवतार की तैयारियों से समस्त वैशाली की शोभा में आश्चर्यजनक परिवर्तन होने लगा, प्रजाजनों में सुख-समृद्धि एवं आनन्द की वृद्धि होने लगी। महाराजा सिद्धार्थ के प्रांगण में प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती थी। नगरजन नगरी की दिव्य शोभा तथा रत्नवृष्टि देखकर विस्मित होने लगे कि अरे ! इस नगरी में कौन ऐसा पुण्यवान पुरुष है कि जिसके गृह-आँगन में प्रतिदिन ऐसे रत्नों की वर्षा होती है ? जब किन्हीं अनुभवी पुरुषों ने बतलाया कि अपनी नगरी में अन्तिम तीर्थंकर अवतरित होने वाले हैं, उसी की तैयारी के ये चिह्न हैं। मात्र अपनी नगरी का ही नहीं; अपितु सारे भरतक्षेत्र का भाग्योदय हो रहा है। ____ महारानी त्रिशलादेवी में भी अन्तरंग एवं बाह्य में कोई अद्भुत परिवर्तन होने लगे। महान आनन्द की अव्यक्त अनुभूतियाँ उनके अन्तर में होने लगीं। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि के पिछले प्रहर में अति उत्तम मंगल सूचक सोलह स्वप्न देखकर वे हर्षातिरेक से रोमांचित हो गईं और उसीसमय प्रभु महावीर का मंगल आत्मा १६वें स्वर्ग से चयकर प्रियकारिणी-त्रिशला माता के उदर में अवतरित हुआ।
मंगल दिन अति सुखदाता, आये उर त्रिशला माता। नर-हरि-देव नमें जिनमाता, हम सिर नावत पावत साता॥
आज त्रिशलादेवी के हर्षोल्लास का पार नहीं था और जब राज सभा में सिद्धार्थ महाराजा के श्रीमुख से उन स्वप्नों का महान फल सुना कि चौबीसवें तीर्थंकर का उनके गर्भ में अवतरण हुआ है, तब तो उन्हें किसी अचिन्त्य निधान की प्राप्ति जैसा अपार हर्ष हुआ। सारी नगरी में भी चारों ओर आनन्द छा गया। लोगों के मुँह से 'धन्य है....धन्य है' के उद्गार निकल रहे थे और कह रहे थे कि अपनी नगरी में हम बाल-तीर्थंकर को खेलते-बोलते हुए देखेंगे....हम सबका जीवन भी धन्य होगा!' .