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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३३ आकाशमार्ग से जाते हुए वहाँ सिंह को प्रतिबोध देने हेतु उतरे। अचानक ऐसे शान्त मुनिवरों को अपने समक्ष खड़ा
महावीर देखकर सिंह को विस्मय हुआ। एक
ओर मरा हुआ हिरन पड़ा है, सामने UFIL चेतनवन्त मुनिवर खड़े हैं। सिंह ने दोनों की ओर देखा - एक ओर महान। हिंसा और दूसरी ओर परम शान्ति (एक ओर आस्रव एवं बंधतत्त्व, दूसरी ओर संवर-निर्जरातत्त्व)। विरुद्ध दृश्य एवं विरुद्ध भाव देखकर वह क्षण भर तो विचार में पड़ गया। अन्त में क्रूरता पर शान्ति की विजय हुई; उसे क्रोध की अपेक्षा शान्ति अच्छी लगी। वीतरागता के सान्निध्य में क्रूरता कैसे टिक सकती थी ? मुनियों की ओर देखकर उसके अन्तर में नवीन शान्तभाव जागृत होने लगे ‘अहा ! ऐसी शान्ति' ! जीवन में प्रथम बार ही अपने अन्तर में ऐसे शान्त परिणामों से सिंह को आश्चर्य होने लगा।
उस समय उसकी सुन्दर चेष्टा देखकर अमितकीर्ति मुनिराज वात्सल्यपूर्ण वचनों से उसे सम्बोधने लगे - हे मृगेन्द्र ! ऐसी क्रूर सिंह पर्याय तुमने कहीं प्रथम बार धारण नहीं की है - ऐसी तो अनन्त क्रूर पर्यायें धारण कर-करके अज्ञान से तुम संसार वन में भटक रहे हो। यह ज्ञान-लक्षण संयुक्त जीव अनादि-अनन्त है; वह अपने परिणामों का कर्ता होकर उनके फल का भोक्ता होता है; अभी तक तुमने अज्ञानवश कषायभाव ही कर-करके उनके फलरूप दुःखों को भोगा है। अब उस मिथ्याबुद्धि को तथा कषायभावों को तुम छोड़ो और आत्मज्ञान करो। अब तुम्हारे हित का अवसर आया है। सिंह बड़ी आतुरता और तल्लीनता से मुनिराज के वचन सुन रहा है।
दूसरे मुनिराज भी प्रेम पूर्वक कहने लगे - अरे वनराज ! तुम्हारे महान भाग्य से तुम्हें मुनिराज का उपदेश मिला है; पात्र होकर तुम अवश्य सम्यक्त्व को अंगीकार करो ! सम्यक्त्व ही परम कल्याणकारी है। सिंह टकटकी लगाकर मुनि के समक्ष देखने लगा, मानों पश्चाताप से अपने पूर्वभव पूछ रहा हो; अत: मुनिराज ने उसके वासुदेव आदि पूर्वभवों का वृत्तान्त सुनाया।