________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/११ संसार की चारों गतियों में आपके जीव ने कैसे-कैसे दुःख सहन किये और पश्चात् जैन मुनिवरों के सम्पर्क में धर्म प्राप्त करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना द्वारा आप इस भवचक्र से छूटे तथा मोक्षपुरी में पधारे। वह सब चित्रपट की भाँति दृष्टिसमक्ष तैरता है। अहा ! आत्मसाधना में आपकी महान वीरता....हमें भी उस साधना के प्रति उत्साहित करती है। प्रभो ! भव से छूटकर मुक्त कैसे होना ? दुःख से छूटकर सुखी कैसे होना ? वह मार्ग आपने अपने जीवन चरित्र द्वारा हमें स्पष्ट बतलाया है; इसलिये पुरुरवा भील से लेकर मोक्ष तक के आपके जीवन-प्रसंगों का वैराग्यरस पूरित आलेखन भव्यजीवों के हितार्थ एवं अपने आत्मा के गुणों की वृद्धि हेतु प्रारम्भ करता हूँ।
पूर्वभव : पुरुरवा भील भगवान महावीर का जीव अपने पूर्वभव में पहले पुरुरवा नाम का भील था; तब एकबार विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में धर्मात्मा श्रावकों का संघ तीर्थयात्रा हेतु जा रहा था। सागरसेन नाम के मुनिराज भी उस संघ के साथ चल रहे थे। संघ जब जंगल के मार्ग से जा रहा था। तब डाकुओं की टोली ने उसे लूट लिया। संघ के लोग इधर-उधर भाग गये। मुनिराज सागरसेन संघ से पृथक् हो गये और घोर जंगल में किधर जायें यह उन्हें नहीं सूझ रहा था। इतने में भील सरदार पुरुरवा ने उन्हें देखा और मुनिराज को मारने के लिये धनुष पर बाण चढ़ाने लगा; तब भील सरदार की भद्र पत्नी ने उसे रोका और बोली – ठहरो स्वामी ! यह कोई सामान्य शिकार नहीं है। इनकी तेजस्वी मुद्रा से तो ये कोई वनदेवता लगते हैं; या फिर ऐसा लगता है कि ये वन में मार्ग भूल गये हैं। चलो, उनके पास चल कर देखें। यह सुनकर क्रूर भील ने क्षणभर में क्रूरता छोड़ दी। उसने मुनिराज के निकट जाकर विनयपूर्वक वन्दन किया और मार्ग भूले हुए मुनिराज को वन में से बाहर निकलने का मार्ग बतलाया।
मुनिराज ने उसकी भद्रता से प्रभावित होकर कहा- “हे भव्य ! तू अहिंसाधर्म को उत्तम जानकर उसका पालन कर। निर्दोष प्राणियों का घात करनेवाली यह क्रूरता तुझे शोभा नहीं देती; इसलिये यह शिकार एवं मांस भक्षण छोड़कर अहिंसाधर्म का सेवन कर, जिससे तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा। मांस के स्वाद की लोलुपतावश निर्दोष जीवों का वध करना वह तो महापाप है। मनुष्यभव पाकर