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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१० अभेदरूप से उन सबका गुणगान भी आ जाता है। इससमय अपना चित्त महावीरमय है; महावीर में सर्व इष्ट पद आ जाते हैं।
अहो महावीर देव ! आपके सर्वज्ञता आदि अगाध गुणों की गम्भीरता के निकट मेरी बुद्धि तो अत्यन्त अल्प है; तथापि आपके परम उपकारों से प्रेरित होकर भक्तिपूर्वक आपके जीवन का आलेखन करने हेतु मैं उद्यमी हुआ हूँ। अल्प होने पर भी मेरी बुद्धि आपके शासन के प्रताप से सम्यक्पने को प्राप्त हुई है; इसलिये मैं निःशंकभाव से आपके अगाध आत्मगुणों का स्तवन करके जगत में प्रकाशित करूँगा। मोक्षगमन के ढाई हजार वर्ष पश्चात् भी आप हम जैसे साधकों के हृदय में ज्यों के त्यों साक्षात् विराज रहे हैं....इसलिये आपके जीवन का सम्यक् आलेखन करना मेरे लिये दुष्कर नहीं है, सुगम है....आनन्दकारी है। हे भव्य साधर्मीजनो ! तुम भी ज्ञान में सर्वज्ञ महावीर को साक्षात् विराजमान करके उन्हें चेतनस्वरूप में जानना, उससे तुम्हें भी महान आत्मिक आनन्द का अपूर्व लाभ होगा।
प्रभो ! आपके गुणों के वर्णन की धुन में मैं शाब्दिक क्षति की अपेक्षा नहीं करता। अहा ! आपके गुणवाचक जो शब्द होंगे, वे सुन्दर होंगे। पारसमणि के स्पर्श से लोहा भी यदि सोना बन जाता है, तो आप जैसे उत्कृष्ट परमात्मा के साथ वाच्य-वाचक सम्बन्ध होने से क्या शब्द पूज्य नहीं बन जायेंगे ? अरे ! स्थापना निक्षेप से जब परमात्मा के साथ सम्बन्ध करते हैं, तब पत्थर भी परमात्मा के रूप में पूजे जाते हैं, तब जो शब्द आपके परमगुणों के वाचक होकर आपके साथ सम्बन्ध करते हैं, वे शब्द यदि जगत में परमागम के रूप में पूजे जाएँ, तो उसमें क्या आश्चर्य ! मेरा लक्ष्य आपके आत्मिक गुणों पर है, शब्दों पर मेरा लक्ष्य नहीं है। आपके सर्वज्ञतादि गुणों का रसिक मेरा मन, इससमय आपके गुणों के सिवा अन्यत्र कहीं नहीं लगता। बस ! आपके वीतरागी आत्मगुणों में मेरे चित्त की तल्लीनता ही मेरा मंगल है।
भगवान महावीर के पूर्वभव : सम्यक्त्व से पूर्व हे महावीर प्रभु ! वर्तमान में तो आप मुक्तरूप से परमसुख की अनुभूति में लीन होकर सिद्धपुरी में विराजमान हैं। हम जहाँ से आपको जानते हैं, वहाँ मोक्ष. से पूर्व की आपकी भवावलि भी दृष्टिगोचर होती है। मोक्ष प्राप्त करने से पूर्व इस