SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/७७ “वसु राजा बड़ा ही सत्यवादी है, उसकी सत्यता के प्रभाव से उसका न्यायसिंहासन आकाश में ठहरा हुआ है" ऐसी चर्चा पूरे राज्य भर में फैला दी गई थी। इधर, सम्यग्दृष्टि जिनभक्त क्षीरकदम्ब संसार से विरक्त होकर दिगम्बर दीक्षा धारण कर अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या कर अन्त में समाधि मरण द्वारा स्वर्ग गये । ... पिता का अध्यापन कार्य पद अब पर्वत को मिला । पर्वत को जितनी बुद्धि थी, जितना ज्ञान था, उसके अनुकूल वह पिता के विद्यार्थियों को पढ़ाने लगा । उसी के द्वारा उसका निर्वाह होता था । क्षीरकदम्ब के साधु होने के बाद नारद भी वहाँ से कहीं अन्यत्र चला गया । वर्षों तक देश-विदेश में धर्म प्रचार करता हुआ घूमा । घूमते-फिरते एक बार पुन: स्वस्तिकावती में अपने गुरु-पुत्र पर्वत से मिलने आया। . पर्वत उस समय अपने शिष्यों को पढ़ा रहा था । साधारण कुशलक्षेम पूछने के बाद नारद वहीं बैठ गया और पर्वत का अध्यापनकार्य देखने लगा । प्रकरण कर्मकाण्ड का था । वहाँ एक श्रुति थी - 'अजैर्यष्टव्यमिति', पर्वत ने उसका अर्थ किया कि बकरों की बली देकर होम करना चाहिये । लेकिन उसमें बाधा देकर नारद ने तुरन्त कहा- “नहीं, इस श्रुति का अर्थ यह नहीं है । गुरुजी ने तो हमें इसका अर्थ ऐसा बताया था कि तीन वर्ष पुराने धान से, जिसमें जीव उत्पन्न होने की शक्ति समाप्त हो जाती है, उससे होम करना चाहिये ।" . पर्वत ने अपनी गलती तो स्वीकार नहीं की, उलटे दुराग्रह के वश होकर उसने कहा- “नहीं, तुम्हारा कहना सर्वथा मिथ्या है । असल में 'अज' शब्द का अर्थ बकरा ही होता है और उसी से होम करना चाहिये।"
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy