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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/६२ जिस प्रकार प्राण बिना शरीर को मृतक कहा जाता है, उसी प्रकार दृष्टि-हीन जीव को चलता हुआ मृतक कहा जाता है। . . . सम्यक्त्व सहित जीव भले ही सिर्फ नमस्कार मन्त्र को जानता हो तो भी गौतमादि आचार्य उसे सम्यग्ज्ञानी कहते हैं और सम्यक्त्व बिना जीव ग्यारह अंगों को जानता हो तो भी उसे अज्ञानी कहते हैं। . अहो! यह सम्यग्दर्शन है, वह ज्ञान-चारित्र का बीज है, मुक्तिसुख का दातार है, उपमा रहित अमूल्य है, इसलिए हे जीव ! तू इसे सुख पाने के लिए ग्रहण कर । जिन्होंने अपने सम्यक्त्व रत्न को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया, . वे जीव जगत में धन्य हैं, पूज्य हैं, वन्द्य हैं और उत्तम बुद्धिमानों से प्रशंसनीय हैं । ... दृष्टि-रत्न सहित जीव जहाँ जाता है, वहाँ अनेक महिमा युक्त और सर्व इन्द्रिय सुखों के बीच रहते हुए भी धर्म सहित रहता है और कल्याण परम्परा सहित तीन लोक को आश्चर्य करने वाले धर्म चक्र से शोभता है, अनन्त महिमा-युक्त, दर्शनीय और सुख की खान- ऐसी तीर्थंकर विभूति को भी वे उत्तम धर्मात्मा प्राप्त करते हैं। अधिक क्या कहें ? जगत में जितना सुख है, वह सब उत्कृष्टपने सम्यग्दृष्टि को प्राप्त होता है। सम्यक्त्व है, वह सार है, वह समय का सर्वस्व है। सिद्धान्त का जीवन वही, वह मोक्षगति का बीज है। विधि जान कर बहुमान से, आराधना सम्यक्त्व को। सब सुक्ख ऐसे पाएगा, आश्चर्य होगा जगत को।। विधि पूर्वक उपासना करने से प्राप्त हुआ सम्यक्त्व ही समय का सर्वस्व है- सर्व शास्त्रों का सार है, समस्त सिद्धान्त का जीवन हैप्राण है और वही मोक्षगति का बीज है । शुद्ध सम्यक्त्व के आराधक धर्मात्मा को मोक्ष सुख प्राप्त होता है, अत: वहाँ स्वर्ग की क्या बात ?
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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