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________________ 6 स्थितिकरण अंग में प्रसिद्ध मुनिश्री वारिषेण की कहानी सदर्शन से, सदाचरण से, विचलित होते हैं जो जन। धर्म-प्रेम वश उन्हें करें फिर, सुस्थिर देकर तन-मन-धन।। "स्थितिकरण' नाम यह छट्ठा, अंग धर्म द्योतक प्रियवर। 'वारिषेण' श्रेणिक का बेटा, ख्यात हुआ चल कर इस पर। भगवान महावीर के समय में राजगृही नगरी में राजा श्रेणिक का राज्य था । उनकी महारानी चेलनादेवी और पुत्र वारिषेण था ।' राजकुमार वारिषेण की अत्यन्त सुन्दर ३२ रानियाँ थी । इतना होने पर भी वह वैरागी था और उसे आत्मा का ज्ञान था । - राजकुमार वारिषेण एक समय उद्यान में ध्यान कर रहे थे। उधर से ही विद्युत नामक चोर एक कीमती हार की चोरी करके भाग रहा, था । उसके पीछे सिपाही लगे थे । पकडे जाने के भय से हार को वारिषेण के पैर के पास फेंक कर वह चोर एक तरफ छिप गया। इधर राजकुमार को ही चोर समझ कर राजा ने उसे फाँसी की सजा सुना दी, परन्तु जैसे ही जल्लाद ने उस पर तलवार चलाई, वैसे ही वह . वारिषेण के गले में तलवार के बदले फूल की माला बन गई। ऐसा होने पर भी राजकुमार वारिषेण तो मौन ध्यान में मग्न थे। ऐसा चमत्कार देख कर चोर को पश्चात्ताप हुआ । उसने राजा से कहा- "असली चोर तो मैं हूँ, यह राजकुमार निर्दोष है ।” यह बात सुन कर राजा ने राजकुमार से क्षमा माँगी और उसे राजमहल में चलने को कहा, परन्तु इस घटना से राजकुमार वारिषेणः के वैराग्य में वृद्धि हुई और दृढ़ता पूर्वक उन्होंने कहा- “पिताजी . यह संसार असार है, अब बस होओ । राज-पाट में मेरा चित्त नहीं . लगता, मेरा चित्त तो एक चैतन्य स्वरूप आत्मा को साधने में ही लग रहा है । इसलिए अब तो मैं दीक्षा लेकर मुनि बनूँगा ।".
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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