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________________ . जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/३४ . . .. क्या पवन से कभी मेरु पर्वत हिलता है? नहीं, उस सम्यग्दर्शन में मेरु जैसा अकम्प सम्यग्दृष्टि जीव कुधर्म रूपी पवन से जरा भी डिगता नहीं, देव-गुरु-धर्म सम्बन्धी मूढ़ता उसे होती नहीं, उनकी उचित पहिचान करके सच्चे वीतरागी देव-गुरु-धर्म को ही वह नमन करता है। रेवती रानी की ऐसी दृढ़ धर्म-श्रद्धा देखकर विद्यावर राजा चन्द्रप्रभ को बहुत प्रसन्नता हुई, तब अपने असली स्वरूप में प्रगट होकर उसने कहा- "हे माता! क्षमा करो । चार दिन से इन ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, शंकर इत्यादि का इन्द्रजाल मैंने ही खड़ा किया था। पूज्य श्री गुप्ताचार्य महाराज ने आपके सम्यक्त्व की प्रशंसा की थी, इसलिए आपकी परीक्षा करने के लिए ही मैंने यह सब किया था । अहा ! धन्य है आपके श्रद्धान को, धन्य है आपके अमूढदृष्टि अंग को। हे माता ! आपके सम्यक्त्व की प्रशंसा पूर्वक श्री गुप्ताचार्य महाराज ने अपके लिए धर्मवृद्धि का आशीर्वाद भेजा है।" ___अहो! मुनिराज के आशीर्वाद की बात सुनते ही रेवती रानी को अपार हर्ष हुआ.... हर्ष से गद्गद् होकर उन्होंने यह आशीर्वाद स्वीकार किया और जिस दिशा में मुनिराज विजित थे, उस तरफ सात पाँव चल कर मस्तक नवाँ कर उन मुनिराज को परोक्ष नमस्कार किया । विद्याधर राजा ने रेवती माता का बहुत सम्मान किया और उनकी प्रशंसा करके सम्पूर्ण मथुरा नगरी में उनकी महिमा फैला दी । राजमाता की ऐसी दृढ़ श्रद्धा और जिनमार्ग की ऐसी महिमा देख कर मथुरा नगरी के कितने ही जीव कुमार्ग छोड़ कर जिनधर्म के भक्त बन गये और बहुत से जीवों की श्रद्धा दृढ़ हो गई । इस प्रकार जैनधर्म की महान प्रभावना हुई । [भाइयो, यह कहानी यह बताती है कि वीतराग परमात्मा अरहन्त देव का सच्चा स्वरूप पहचान कर उनके अलावा अन्य दूसरे किसी भी देव को- भले ही साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु, शंकर दिखाई दें, नमस्कार नहीं करे । जिन वचन के विरुद्ध किसी बात को माने नहीं । भले सारा जगत कुछ भी माने और तुम अकेले .पड़ जाओ, तो भी जिनमार्ग की श्रद्धा नहीं छोड़ना चाहिये।] ०
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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