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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग -८/१७ जैनधर्म के एक छोटे से मन्त्र के प्रभाव से मेरे जैसे चोर को यह विद्या सिद्ध हुई तो वह जैनधर्म कितना महान होगा ! उसका स्वरूप कितना पवित्र होगा । चलूँ, जिस सेठ के प्रताप से मुझे यह विद्या मिली, उन्हीं सेठ के पास जाकर जैनधर्म के स्वरूप को समझँ और उन्हीं से वह मन्त्र भी सीख लूँ, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो सके ।" ऐसा विचार कर विद्या के बल से वह मेरुपर्वत पर पहुँचा । वहाँ पर रत्नमयी अद्भुत अरहन्त भगवन्तों की वीतरागता देख कर वह बहुत प्रसन्न हुआ । उस समय जिनदत्त सेठ वहाँ पर मुनिवरों का उपदेश सुन रहे थे । अंजन ने उनका बहुत उपकार माना और मुनिराज के उपदेश को सुन कर शुद्धात्मा के स्वरूप को समझा । शुद्धात्मा की नि:शंक श्रद्धा पूर्वक निर्विकल्प अनुभव करके उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया; इतना ही नहीं, पूर्व के पापों का पश्चात्ताप करके उसने मुनिराजों के पास दीक्षा ली, साधु बनकर आत्मध्यान करतेकरते उन्हें केवलज्ञान हुआ, पश्चात् वे कैलाशगिरि से मोक्ष पाकर सिद्ध हुए । अंजन से निरंजन बन गये, उन्हें हमारा नमस्कार हो । (इस कहानी से हमें यह शिक्षा लेना चाहिये कि जैनधर्म पर नि:शंक श्रद्धा करके उसकी आराधना करना श्रेयकार है । देह से कोई पापी नहीं होता, परिणामों से पाप-पुण्य होता है। सम्यग्दर्शन सहित यदि आत्मा चण्डाल की देह में भी हो तो गणधर देव उसे "देव" कहते हैं । सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान एवं चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि एवं फलोदय नहीं होता । यह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी मन्दिर का प्रथम सोपान है। ) • विवेकीजन यथासंभव संघर्ष को टालने में ही अपनी जीत समझते हैं, उलझने में नहीं। ज्ञानी और अज्ञानी में यदि कभी संघर्ष हो तो जीत सदा अज्ञानी की ही होती है; क्योंकि संघर्ष ज्ञान से नहीं, कषाय से चलता है। ज्ञानी की कषाय कमजोर होने से उसका संघर्ष का संकल्प शीघ्र क्षीण हो जाता है। सत्य की खोज, पृष्ठ १६
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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