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- कर्मदेव और धर्मदेव कर्मदेव : .......संसारी प्राणी तो मेरी उपस्थिति के अनुरूप ही रागद्वेष करने और सुख-दुःख का अनुभव करने को बाध्य हैं।
धर्मदेव : सुनो कर्मदेव ! स्वभावतः आत्मा ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी चैतन्य महा पदार्थ है। अनन्त-अनन्त शक्तियों का पुंज, गुणों का निधान, निरावरण, निरपेक्ष ऐसा त्रिकाल शुद्ध आनन्द-कन्द स्वयं-बुद्ध परमात्मा है। किन्तु अपने इस शाश्वत स्वरूप से च्युत होकर संसारी जीव जब आपके बहुरूपियेपन में व्यामोहित बुद्धि करके मदोन्मत्त होता है, तो उसके हृदय में विभाव परिणामों की उत्पत्ति होती है, तभी आपको यह अहंकार करने का अवसर मिल जाता है कि मैंने जीव को रागी-द्वेषी किया, मैंने जीव को सुखीदुःखी बनाया।
कर्मदेव : विभाव परिणामों का नियन्ता तो अनन्तः मैं ही सिद्ध हुआ। .
धर्मदेव : नहीं कर्मदेव ! विभाव परिणामों का मूल कारण जीव का परद्रव्य में एकत्व बुद्धिरूप अध्यास है। जीव अपनी योग्यता से स्वतन्त्रतापूर्वक स्व-सन्मुख होकर स्वभाव रूप भी परिणमन करता है। इसमें आपका कोई हस्तक्षेप नहीं चलता। हाँ....... आप निमित्त अवश्य हैं। .
___ कर्मदेव : निमित्त तो हूँन ! मेरे निमित्त बिना तो संसारी प्राणी का कोई उपक्रम संभव नहीं।......
धर्मदेव : कार्योत्पत्ति का स्वकाल हो और वहाँ निमित्त अनुपस्थित रहे, ऐसी असंभव वस्तु-व्यवस्था लोक में कहीं नहीं है।.... और कर्मदेव ! निमित्त अपेक्षा भी विचार किया जाये तो एक कटु सत्य और है।
कर्मदेव : (जिज्ञासा पूर्वक) वह क्या?
धर्मदेव : जीव के एक समय के विकारी परिणाम को निमित्त करके कार्माण वर्गणा के अनन्तानन्तरजकण मिलकर आपका निर्माण करते हैं। विचार कीजिए, कौन किसका नियन्ता है।....कर्मदेव! यह तोजीवके विकार परिणाम की शक्ति है। निर्विकार परिणाम की शक्ति जानते हैं, क्या है?
कर्मदेव : (विस्मय से) क्या?.... - मुक्ति के संघर्ष से साभार