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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७० सहज स्वभाव भाव अपनाऊँ, पर-परिणति से चित्त हटाऊँ। पुनि-पुनि जग में जनम न पाऊँ, सिद्ध-समान स्वयं बन जाऊँ। चिदानन्द चैतन्य प्रभु का, है सौभाग्य महान।।३॥
(धीरे-धीरे भक्ति की धुन जमती जाती है। संघश्री एकदम रंग में आकर हाथ में चंवर लेकर भगवान के सम्मुख भक्ति से नाच उठते हैं। अत्यंत गद्गद् होने पर आंखों में अश्रुधारा बरसती है और इसप्रकार जैनधर्म की प्रभावना पूर्वक यह नाटक समाप्त होता है।) सभी : बोलो! अनेकान्तमार्ग-प्रकाशक जिनेन्द्र भगवान की जय!!
जो परम वीतराग जिनदेव को छोड़ कर तुच्छ विषयासक्त कुदेवों को पूजते हैं, उन मूर्ख जीवों के मिथ्यात्व-पाप का क्या कहना? वे भयंकर भव-समुद्र में डूबते हैं..... अमृत को छोड़ कर जहर पीते हैं। जिस प्रकार आकाश से किसी की बराबरी नहीं, उसी प्रकार भगवान जिनेन्द्र देव से किसी अन्य की बराबरी नहीं।
इसलिए हे भव्य ! तू ऐसे भगवान को पहचान कर उनके द्वारा कहे हुए धर्म का ही आचरण कर। उस धर्म के आचरण से तू भी भगवान बन जायेगा।
धर्मरूपी जो कल्पवृक्ष है, उसका फल मोक्ष है और उसका मूल सम्यग्दर्शन है। दुष्ट जीवों के हृदय में रहने वाली पाप-मलिनता कोई पानी के स्नान से धोई नहीं जाती, वह तो सम्यग्ज्ञान के पवित्र जल से ही धोई जाती है। मृत माता-पिता वगैरह के लिए दान देना कोई श्राद्ध नहीं, परन्तु केवल अपने धर्म पालन के लिए श्रद्धा पूर्वक सुपात्र को दान देना ही सबसे उत्तम श्राद्ध है। मृत व्यक्तियों के लिए किया जाने वाला श्राद्ध तो मिथ्यात्व पोषक है। अज्ञान और राग-द्वेष में अत्यन्त आसक्त मूर्ख जीव ही कुधर्म का उपदेश ग्रहण करते हैं। अज्ञानियों को ठगने के लिए ही कुधर्म का उपदेश अनेक दोषों से भरा हुआ है, इसलिए हे भव्य ! तू उसे जहरीले साँप | के समान जान कर छोड़ दे।
___ - सकलकीर्ति श्रावकाचार