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- जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६८ भाई की हत्या कराई थी। मेरे दुष्ट कार्य के लिए मुझे क्षमा करो। आपका उदार एवं पतित-पावन जैनधर्म अवश्य मुझे क्षमा करेगा और मेरा कल्याण करेगा। हे अकलंक! आप सचमुच ही अकलंक हो। मुझे क्षमा करो और जैनधर्म की शरण में लो।
अकलंक : (वात्सल्यपूर्वक संघश्री के कन्धे पर हाथ रखकर) खुशी से जैनधर्म की शरण में आओ। जैनधर्म के द्वार सब के लिए खुले हैं। आओ! आओ! जिसे अपना कल्याण करना हो, वह जैनधर्म की शरण में आओ। पहले जो कुछ हो चुका, उसे भूल जाओ और शान्तचित्त से जैनधर्म की आराधना करो।
संघश्री : अहो! जैनधर्म की महत्ता मेरी समझ में अब आई है और मुझे पुरानी भूलों पर पश्चाताप हो रहा है, इसी से पता चलता है कि आत्मा नित्य और अनित्य ऐसे अनेकान्त स्वरूप है। यदि पहले भूल करनेवाला स्वयं नित्य न हो, तो इस समय पश्चाताप कैसे हो? क्या भूल एक करता है और पश्चाताप दूसरा करता है? क्या सचमुच ऐसा हो सकता है; इसलिए आत्मा की नित्यता है -यह सही-सही समझ में आता है और भूल छोड़कर यथार्थता प्रकट हो सकती है, यही सूचित करता है कि अनित्यता भी है। इस प्रकार जैनधर्म के प्रताप से मुझे अनेकान्तमय वस्तु समझ में आयी है। आपके ही प्रताप से मुझे अपूर्व शान्ति का मार्ग प्राप्त हुआ है। मैं आपका महा उपकार मानता हूँ और आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे जैनधर्म में स्वीकार कीजिये।
अकलंक : देखो! ये जिनेन्द्र भगवान विराज रहे हैं। आओ! इनकी शरण लेकर जैनधर्म स्वीकार करें।
(संघश्री जिनेन्द्र भगवान की ओर हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं और अकलंक जिसप्रकार बुलवाते हैं, वैसा ही बोलते हैं, प्रत्येक वाक्य एक बार अकलंक बोलते हैं, उसके बाद संघश्री बोलते हैं।)
अरहते शरणं पव्वज्जामि। सिद्धे शरणं पव्वज्जामि। साहू शरणं पव्वज्जामि। केवलिपण्णत्तं धम्मं शरणं पव्वज्जामि।