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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४४ अकलंक : (करुण होकर) भाई! मैं नहीं जाऊँगा। तू भाग जा और मैं यहाँ खड़ा होकर सैनिकों को रोके रसूंगा।
निकलंक : (करुण होकर) भाई! भाई!! जैन-शासन के लिए अब एक शब्द भी बोले बिना, अब एक पल भी गंवाये बिना तुम जल्दी भागो। इस समय सवाल मेरे या आपके जीवन का नहीं, अपितु जैन-शासन की रक्षा का है। अब विलम्ब करोगे तो हम दोनों पकड़े जायेंगे, इसलिए जल्दी जाओ। जैन-शासन की प्रभावना जितनी आप कर सकेंगे, उतनी मैं नहीं कर सकता, इसलिए जैन शासन की सेवा के लिए आप अपना जीवन बचाओ। जाओ! भाई, जल्दी जाओ!.
(पर्दे में से सैनिकों की आवाज आती है:- वे जा रहे हैं। पकड़ो, पकड़ो।)
. अकलंक : (अत्यंत करुण शब्दों में) भाई! तू जैनधर्म का परम भक्त है। मैं मजबूर हूँ कि इस समय जैनधर्म के लिए तुझे अकेला छोड़कर मुझे जाना पड़ रहा है। भाई! जिनेन्द्र भगवान तेरा कल्याण करें।
DMI
.. (दोनों भाई बहुत ही स्नेहपूर्वक एक दूसरे से मिलते हैं।)