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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३४ . ..गुरु : (क्रोधित होकर) मैं जानता हूँ कि कोई जैन विद्यार्थी यहाँ गुप्तरूप से घुस आया है, परन्तु मैं उसको पकड़कर ही रहूँगा। मंत्रीजी! यहाँ आओ।
मंत्री : जी महाराज!
गुरु : जाओ, एक जिनप्रतिमा मंगवाओ और फिर उसे रास्ते के बीच में रखकर प्रत्येक विद्यार्थी को एक-एक करके मूर्ति को लांघने के लिए कहो। जो विद्यार्थी उस मूर्ति को न उलंघे, उसे मेरे पास पकड़कर लाओ; क्योंकि जो सच्चा जैन होगा, वह जिनप्रतिमा को कभी नहीं लांघेगा।
मंत्री : जैसी आज्ञा! . (मंत्री अन्दर जाकर थोडी देर में लौट आता है।)
मंत्री : महाराज! आपकी आज्ञानुसार मूर्ति रख दी है। अब एक-एक करके विद्यार्थियों को भेजिए और आप स्वयं भी देखने के लिए चलिए।
गुरु : हाँ, चलिए। विद्यार्थियो! तुम भी एक-एक करके अन्दर आओ ओर जिनप्रतिमा को लांघकर आगे निकलो।
(गुरु अन्दर जाते हैं। पीछे से एक के बाद एक शिष्य जाता है। अंत में अकलंक और निकलंक दो ही शेष रहते हैं।)