________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१७ दूसरा दृश्य:
(शास्त्र सभा चल रही है, उसमें अकलंक निकलंक के पिताजी श्री पुरुषोत्तम सेठ नियमसार गाथा-९० पढ़ रहे हैं। श्रोतागण सुन रहे हैं।)
--
-
-
5
Dine
पुरुषोत्तम सेठ : मिथ्यात्व आदिक भाव की, की जीव ने चिरभावना। सम्यक्त्व आदिक भाव की पर, की कभी न प्रभावना।।९०॥
अहो! आचार्य भगवान कहते हैं कि आत्मस्वरूप के सन्मुख होकर शुद्ध रत्नत्रय की भावना जीव ने पहले कभी नहीं की है। अनन्तकाल से मिथ्यात्व आदिक भावों को ही जीव ने भाया है, इसलिए ही वह संसार-परिभ्रमण कर रहा है। इस जगत में वे मुनिवर ही परमसुखी हैं कि जो चैतन्यस्वरूप में मग्न होकर रत्नत्रय को भा रहे हैं। अहो! मुनिवरों के दर्शन हों, वह जीवन भी धन्य है।
(अकु-निकु आकर हर्षपूर्वक कहते हैं।)
अकु-निकु : पिताजी! पिताजी!! अपनी नगरी के उद्यान में चित्रगुप्त मुनिराज पधारे हैं। उनके दर्शन से हमें बहुत आनन्द हुआ है।