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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/१७ को लगाकर भक्ति करती हैं। वनवास के समय गुफा में देखे हुए मुनिराज को बारंबार याद करती हैं।
बालकुंवर हनुमान भी प्रतिदिन माता के साथ ही मंदिर जाता है। देव, शास्त्र, गुरु की पूजन करना सीखता है और मुनिराजों की संगति से आनंदित होता है।
एक बार ८ वर्ष के बालक को लाड़ करती हुई अंजना माँ पूछती हैं - "बेटा हनु ! तुझे क्या अच्छा लगता है ?"
हनुमान कहते हैं- “माँ मुझे तो एक तू अच्छी लगती है और एक (आत्मा) अच्छा लगता है।"
माँ कहती है -
“वाह बेटा ! मुनिराज ने कहा था कि तू चरम शरीरी है, अर्थात् तू तो इस भव में ही मोक्षसुख प्राप्त करके भगवान बनने वाला है।"
कुंवर कहता है - “वाह माता, धन्य वे मुनिराज ! हे माता, मुझे आप जैसी माता मिली, तब फिर मैं दूसरी माता क्यों करूँ ? माँ, आप भी इस भव में अर्जिका बनकर भव का अभाव कर एकाध भव में ही मोक्ष को प्राप्त करना।"
अंजना कहती है - “वाह बेटा ! तेरी बात सत्य है, सम्यक्त्व के प्रताप से अब तो इस संसार-दुःखों का अंत नजदीक आ गया है। बेटा, जबसे तेरा जन्म हुआ है, तबसे दुःख टल गये हैं और अब ये संसार के समस्त दुःख भी जरूर ही टल जायेंगे।"
कुंवर कहता है – “हे माता ! संसार में संयोग-वियोग की कैसी विचित्रता है तथा जीवों के प्रीति-अप्रीति के परिणाम भी कैसे चंचल और अस्थिर हैं ! एक क्षण पहले जो वस्तु प्राणों से भी प्यारी लगती है, दूसरे क्षण वही वस्तु ऐसी अप्रिय लगने लगती है कि उसकी तरफ देखना भी नहीं सुहाता तथा कुछ समय बाद वही वस्तु फिर से प्रिय लगने लगती है।