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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४ -४/८० उसकी बात है, उसी के साथ-साथ लवकुश की आत्मायें किस प्रकार यहाँ से मोक्ष को प्राप्त हुई, वह बात भी साथ में आ जाती है । लव-कुश आदि मुनिराज यहाँ से मोक्ष गये, वे इसी रीति से मुक्ति गये और यही मुक्ति का मार्ग है, यही वास्तविक मंगल है, यही उत्तम है और यही शरण रूप है। धर्मात्मा मुनिराजों को अपना चिदानन्द स्वभाव ही एकमात्र प्रिय लगता है और स्वयं को जो वस्तु प्रिय लगती है, उसका ही जगत को निमंत्रण करते हैं -
" हे जीवो ! तुम भी चिदानन्द स्वरूप ही हो। तुम भी उसी का आश्रय करके अतीन्द्रिय आनन्द का भोजन करो। जैसे तीर्थ में संघ का भोजन होता है अथवा लौकिकजन जिस प्रकार विवाह के बाद प्रीतिभोज कराते हैं, उसी प्रकार यहाँ मोक्ष को साधते - साधते मोक्षमार्गी सन्त जगत को अतीन्द्रिय आनन्द का प्रीतिभोज करा रहे हैं.... मोक्ष के मंडप में सारे जगत को निमंत्रण करते हैं कि हे जीवो! आओ....रे आओ.... हमारे समान तुम भी अपनी आत्मा में अन्तर्मुख होकर अतीन्द्रिय आनन्द का भोजन करो और पूर्ण सुखी हो जाओ ।
वह
आज यात्रा का पहला दिन है.... सोनगढ़ से निकलने के बाद यह पहली यात्रा पावागढ़ सिद्ध क्षेत्र की हो रही है। अतः यहाँ से मोक्ष को प्राप्त हुए लव - कुश आदि मुनियों को याद करके वे किस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए इसकी चर्चा की। वह अलौकिक मार्ग समझकर अन्तर में उतरना, सिद्ध भगवन्तों को भावनमस्कार है, वह सिद्धि धाम की निश्चय यात्रा है, और वे जहाँ से मोक्ष गये - ऐसे सिद्धक्षेत्रों आदि की यात्रा - वंदना का भाव वह द्रव्य नमस्कार है, वह व्यवहार यात्रा है । - ऐसी निश्चय - व्यवहार की संधि साधक के भावों में होती है।
सभी आत्माओं में ज्ञान है;
परन्तु धन्य हैं वे आत्माएँ, जिनके ज्ञान में आत्मा है।