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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/७३ हमारे सिद्धपद को साधेगे। अब हम संसार से (पुण्य और पाप दोनों से) विरक्त होकर अपने चैतन्य स्वरूप में समा जायेंगे।"
“अरे, संसार की स्थिति बड़ी विचित्र है ! आत्मा का भान होने पर भी चारित्र मोह के उदय से यह दशा ! अरे, शरीर की यह क्षणभंगुरता! इसका क्या विश्वास करना ?
___ संध्या की लालिमा के समान यह संसार ! इसे छोड़कर अब हम ज्ञात अन्तर के मार्ग पर जायेंगे।"
“इस क्षणभंगुर असार-संसार को छोड़कर हम आपसे दीक्षा लेने हेतु स्वीकृति माँगने आये हैं....अब हम दीक्षा लेकर ध्रुव चैतन्य तत्त्व का ध्यान करेंगे और उसके आनन्द में लीन होकर इसी भव से सिद्धपद प्राप्त करेंगे, अतः हमें दीक्षा की स्वीकृति देवें । हे तात् ! जिन-शासन के प्रताप से सिद्ध पद को साधनेवाला जो अन्तर का मार्ग हमने देखा है, उस अन्तर के मार्ग पर अब हम जा रहे हैं।"
- ऐसा कहकर जिनके रोम-रोम में प्रदेश-प्रदेश में वैराग्य की धारा उल्लसित हो रही है....ऐसे वे दोनों राजकुमार मुनिदीक्षा लेने के लिए वैराग्य पूर्वकं पिता की आज्ञा लेकर महेन्द्र उद्यान में गये और अमृतेश्वर मुनिराज के संघ में दीक्षित हुए।
बाद में आत्मध्यानपूर्वक विचरते-विचरते यहाँ पावागढ़ पर्वत पर आये और ध्यान में लीन होकर केवलज्ञान प्रगट कर मोक्षपद प्राप्त किया। इस तरह शुद्ध रत्नत्रय रूप परमार्थ तीर्थ के द्वारा संसार से पार होकर उन्होंने मोक्षपद पाया। इस कारण यह स्थान भी व्यवहार से तीर्थ है।
__ अन्तर में आत्मभान करने के बाद से ही दोनों ने अन्तरंग में चैतन्य की मुक्ति का मार्ग देखा था....इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है, हमारा सुख और हमारी मुक्ति का मार्ग हमारे अन्तर में ही है- ऐसा भान तो पहले से ही था, अब वे अन्तर में देखे हुए मार्ग पर चैतन्य के आनन्द को साधने