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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/७०
उक्त शब्द सुनते ही 'हे राम !' ऐसा कहकर लक्ष्मण वहीं सिंहासन पर लुढ़क गये और मृत्यु को प्राप्त हुए।
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देखो ! इस संसार की स्थिति ! रामचन्द्रजी तो अभी जीवित थे, परन्तु उनके मरण का समाचार सुनते ही तीव्र स्नेह के कारण लक्ष्मण की मृत्यु हो गयी।
इस घटना का वर्णन करके आचार्य देव कहते हैं - " अहो ! ऐसे क्षणभंगुर अशरण संसार में जिसका ध्यान ही एकमात्र शरणभूत और .. शान्ति दायक है - ऐसे परम चैतन्यतत्त्व को मैं प्रणाम करता हूँ.... ।
अनन्तकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुये आत्मा को शान्ति किस प्रकार प्राप्त होवे और वह मुक्ति को कैसे प्राप्त हो ? उसकी यहाँ चर्चा है
आत्मा का ध्येय सिद्धपद है । चिदानन्द स्वरूप आत्मतत्त्व को जानकर और उसका ध्यान कर अनंत जीव सिद्धपद को प्राप्त हुए हैं, उसका वास्तविक स्वीकार करने पर 'मेरी आत्मा में भी ऐसा ही सिद्धपद प्रगट करने की सामर्थ्य है' - इस प्रकार अपने स्वभाव की भी प्रतीति हो जाती है।
देखो भाई ! जीवन में यदि करने योग्य कुछ है तो वह यही है कि जिससे यह आत्मा भवसमुद्र से पार हो । भव-भ्रमण के दुःखों में डूबा हुआ आत्मा जिस उपाय द्वारा संसार से पार हो अर्थात् मुक्ति प्राप्त करे, वही उपाय करने योग्य है। चैतन्य स्वभाव के आश्रय से प्रगट होनेवाले जो सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप तीर्थ, उसके द्वारा भवसमुद्र से पार होते हैं, - ऐसे तीर्थ की आराधना करके अनंत जीव संसार से पार हुए हैं और मुक्ति को प्राप्त हुए है ।
मुनिसुव्रत भगवान के तीर्थकाल में श्री रामचन्द्रजी के दो पुत्र, लव और कुश ऐसे रत्नत्रय तीर्थ की आराधना करके ही इस पावागढ़ सिद्धक्षेत्र मुक्ति को प्राप्त हुए।