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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/६३ इस प्रकार वन में बैठे-बैठे अनेक प्रकार के विकल्पों की व्याकुलता से पवनकुमार समय व्यतीत कर रहे थे।
यहाँ शास्त्रकार कहते हैं – “पवनकुमार अंजना के ध्यान में ऐसे तल्लीन हैं कि यदि ऐसी ही तल्लीनता आत्मध्यान में हो जाये तो वह तत्क्षण मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।" पवन और अंजना का मिलन -
इधर कुमार से विदा प्राप्त कर उनका मित्र प्रहस्त पिता के समीप पहुँचा और उन्हें सर्व वृत्तान्त से अवगत करा दिया, जिसे सुनते ही महाराज प्रहलाद शोक-संतप्त हो गये, सभी जन शोक सागर में निमग्न हो गये।
कुंवर की माता केतुमति भी पुत्र-शोक से अत्यन्त पीड़ित होकर रोते हुये प्रहस्त से बोली – “अरे प्रहस्त ! तू मेरे पुत्र को अकेला ही छोड़ आया – यह तूने ठीक नहीं किया।"
प्रहस्त ने कहा – “हे माताजी ! कुमार ने अत्यन्त आग्रह करके मुझे आपके पास यह समाचार देने हेतु भेजा है, अतः मैं आया हूँ; किन्तु अब मैं भी वापस जा रहा हूँ।"
माता ने पूछा – “कुमार कहाँ है ?". प्रहस्त ने कहा – “जहाँ अंजना होगी, वहीं वे भी होंगे।"
माता ने पूछा – “अंजना कहाँ है ?" । प्रहस्त ने कहा – “यह मुझे ज्ञात नहीं। हे माता ! जो जीव बिना विचारे शीघ्रता से कोई कार्य करते हैं, उन्हें बाद में पछताना ही पड़ता है।
आपके पुत्र ने तो यह निश्चय कर लिया है कि यदि उसे अंजना प्राप्त नहीं हुई तो वह प्राणत्याग कर देगा।"
कुमार के इस कठोर निर्णय की जानकारी प्राप्त होते ही माता . सहित अन्त:पुर की समस्त स्त्रियाँ रुदन करने लगीं। विलाप करती हुई