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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/६१ “हे वीतराग जिनेन्द्रदेव ! आपके चरण-कमल में मेरा सादर प्रणाम है। हे नाथ ! आप पूर्ण सुखी हैं, आप ही जगत के जीवों को शरणभूत हैं। हे सर्वज्ञपिता ! इस जगत में संयोग-वियोग से आकुलित जीव अपने हृदय में आपका ध्यान धारण कर शान्तिलाभ प्राप्त करते हैं।"
इस प्रकार स्तुति कर वह गुफा में बैठकर भगवान का ध्यान करने लगा। कुछ देर पश्चात् गुफा से बाहर आकर पवनकुमार विचार करने लगा – “इस गुफा में यह प्रतिमा कहाँ से आई ? किसने इस गुफा में इसकी स्थापना की ? कहीं अंजना तो यहाँ नहीं रहती थी ? अवश्य ही वह यहाँ रही होगी। वह तो जिनेन्द्र देव की परमभक्त है, अवश्य ही दर्शनपूजनार्थ यह प्रतिमा उसने यहाँ स्थापित कराई होगी।
अहो ! कैसा भी संकटकाल हो, जिनेन्द्रदेव का विस्मरण धर्मात्मा जीव कैसे कर सकते हैं ?"
- इस प्रकार विचारकर कुमार उस गुफा में तथा वहीं आस-पास. अंजना को खोजने लगे....खूब जोर-जोर से उसके नाम से पुकारने लगे, किन्तु कहीं भी अंजना का पता न लगा।
पर्वत और वन-जंगल में घूम-घूमकर पवनकुमार ने खोज की, पर कहीं भी अपनी प्राणप्रिया को नहीं खोज पाये, अत: वह अत्यन्त निराश हो गये, उस समय सारा जगत उन्हें शून्य प्रतीत हो रहा था। अत: उन्होंने प्राणोत्सर्ग का निर्णय कर लिया।
अंजना के बिना उनका मन न तो पर्वत पर लगता था और न गुफा में और न मनोहर वृक्ष और नदी के किनारे ही।
वे मोह से आच्छादित हो, विवेक-विहीन हो, वृक्षों से भी अंजना के विषय में पूछने लगे- “हे वृक्ष ! तूने कहीं मेरी प्रिया को देखा है ?"
___ पर्वत से पूछते हैं – “अरे पर्वत ! क्या तुमने अपनी किसी गुफा में अंजना को शरण प्रदान की है ?"