________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/५७ "हे श्रेणिक ! प्राणियों के पूर्वोपार्जित पुण्य के फलस्वरूप पर्वतों का भेदक महाकठोर बज्र भी पुष्पसमान कोमलरूप परिणमित हो जाता है। महा आतापकारक अग्नि भी चन्द्र-किरण सदृश शीतल बन जाती है, इसी तरह तीक्ष्ण धारयुक्त तलवार भी मनोहर कोमल लतासदृश हो जाती है - ऐसा जानकर जो जीव विवेकी हैं, वे पाप से विरक्त हो जाते हैं। हे जीवो ! इस बात को श्रवणकर तुम भी जिनराज के पवित्र चरित्र के अनुरागी बनो।
कैसा है जिनराज का चरित्र ? “मोक्षसुख देने में चतुर है।"
यह सारा जगत ही मोह के कारण जन्म-जरा एवं मरण के दुखों से अत्यन्त तप्तायमान है, उन दुखों से छुड़ाकर परम सुख प्रदान करने में समर्थ- ऐसे श्री जिनेन्द्र भगवान के वीतरागी चरित्र का अनुसरण करो।" पवन कुमार की व्यथा -
गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं - “हे मगधाधिपति ! यह तो मैंने श्री हनुमान के जन्म का वृत्तान्त कहा, अब हनुमान के पिता पवनंजय का वृत्तान्त सुनो -
अंजना सुन्दरी से विदा प्राप्त कर पवनंजय शीघ्र ही विमान से महाराज रावण के समीप पहुँचे और उनकी आज्ञानुसार उन्होंने राजा वरुण से युद्ध कर खरदूषण को मुक्त कराया एवं राजा वरुण को बंदी बनाकर महाराज रावण के समक्ष प्रस्तुत किया।
पवनकुमार की अद्भुत शूरवीरता से महाराज रावण को अत्यन्त हर्ष हुआ। तत्पश्चात् महाराज रावण से विदा प्राप्त कर कुमार पवनंजय ने अंजना के स्नेह के वशीभूत होकर शीघ्र ही अपने राज्य की तरफ प्रस्थान कर दिया।
जब राजा प्रहलाद को विजयी कुमार के शुभागमन का समाचार प्राप्त हुआ तो उन्होंने नगर का श्रृंगार करवाकर कुमार का स्वागत किया।