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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/४२ संत मुनियों के जो नाथ हैं, जो सर्वजगत के भी नाथ हैं - ऐसे धर्मचक्री श्री अरिहन्त देव हैं, जो उनके प्रतिबिम्ब का अविनय करते हैं, वे मूढ़ भव-भव में निकृष्ट गतियों को प्राप्त करते हैं और भयंकर दुःख को भोगते हैं, जो कि वचन-अगोचर हैं।
यद्यपि श्री वीतरामदेव तो राग-द्वेष विहीन हैं, वे न तो अपने सेवकों से प्रसन्न होते हैं और न अपने निन्दकों से द्वेष करते हैं - वे तो महामध्यस्थ वीतराग भाव को धारण करने वाले हैं, तथापि जो जीव उनकी सेवा करता है, वह स्वर्ग एवं मोक्षसुख को प्राप्त होता है और उनकी निन्दा करने वाला नरक-निगोद के दुखों को प्राप्त करता है, क्योंकि जीवों के सुख-दुख की उत्पत्ति अपने ही परिणामों से होती है। जैसे अग्नि इच्छा रहित है, तथापि उसके सेवन से शीत का निवारण होता है, उसी प्रकार जिनदेव इच्छारहित वीतराग हैं, तथापि उनके अर्चन-सेवन से स्वयमेव सुखोपलब्धि होती है और उनके अविनय से दुखोपलब्धि होती है।
हे पुत्री ! इस संसार में दृष्टिगोचर समस्त दुख पाप के ही फल हैं और समस्त सुख धर्म का ही फल है। पूर्व पुण्योदय के फलस्वरूप तू राजा की पटरानी हुई है, महासम्पत्ति एवं अद्भुत कार्यक्षमता से युक्त पुत्र रत्न की प्राप्ति तुझे पूर्व पुण्योदय से हुई है, अत: इस अवसर में तुझे वह कार्य करना चाहिये, जिससे तुझे सुख प्राप्त हो । मेरे इन वचनों को सुनकर तू शीघ्र आत्मकल्याणार्थ तत्पर हो जा ! हे भव्य ! आँख होते हुये भी कुएँ में गिरने सदृश कार्य तेरे लिये शोभास्पद नहीं कहा जा सकता।
यदि इस अवसर में भी तूने ऐसे घृणास्पद कार्य का परित्याग नहीं किया तो तुझे नरक-निगोद के दुख प्राप्त करने पड़ेंगे।
देव-शास्त्र-गुरु का अविनय तो महादुख का कारण है, तेरे में विद्यमान इस प्रकार के दोष देखकर भी यदि मैं सम्बोधन न करूँ तो मुझे प्रमाद का दोष लगता है - इस कारण तेरे कल्याण के लिये यह धर्मोपदेश तुझे दिया है।"