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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/४० । वैराग्य उत्पन्न होने पर राज्य का भार अपने पुत्र लक्ष्मीवाहन को सौंपकर लक्ष्मीतिलक मुनिराज के शिष्यत्व को अंगीकार कर लिया अर्थात् वीतराग देव कथित मुनिधर्म अंगीकार कर लिया और अनित्यादि द्वादशानुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करके ज्ञानचेतना रूप हो गया, उसने महान तप किया और निज स्वभाव में एकाग्रता के बल पर उस स्वभाव में ही स्थिरता की अभिवृद्धि का प्रयत्न करने लगा। तप के प्रभाव से उसे अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्रगट हो गयीं, उसके शरीर से स्पर्शित पवन भी जीवों के अनेक रोगों को हर लेती थी। अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न वे मुनीश्वर निर्जरा के हेतु बाईस प्रकार के परीषहों को सहन करते । इस प्रकार अपनी आयु पूर्ण कर वे मुनिराज ज्योतिष्चक्र का उल्लंघन कर लांतव नामक सप्तम स्वर्ग में महान ऋद्धि से सुसम्पन्न देव हुये । देवगति में वैक्रियक शरीर होता है, अत: मनवांछित रूप बनाकर इच्छित स्थानों पर गमन सहज ही होता था। साथ ही स्वर्ग का अपार वैभव होने पर भी उस देव को तो मोक्षपद की ही भावना प्रवर्तती थी, अत: वह स्वर्ग सुख में 'जल तें भिन्न कमलवत्' निवास करता था।
हे पुत्री ! वही देव स्वर्ग से चयकर अंजना के गर्भ में आया है, वह