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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/३५ हैं और तुम्हारा निर्मल सम्यग्दर्शन ही तुम्हें शरणरूप है। वही तुम्हारा वास्तविक रक्षक एवं वही इस असार-संसार में एकमात्र सारभूत है। अतः हे सखी ! इस तत्त्वज्ञान के चिन्तवन से अपने चित्त को शान्त करो। पूर्वोपार्जित कर्मों के उदयानुसार संयोग-वियोग की दशायें तो बनती ही रहती हैं, उसमें हर्ष-शोक क्या करना ? स्वर्ग की अप्सरायें जिसे निरखती हैं - ऐसा स्वर्ग का देव भी पुण्य समाप्त होने पर दुख प्राप्त करता है। जीव सोचता कुछ है और होता कुछ है, संयोग-वियोग में जीव का कुछ भी अधिकार नहीं है।
जगत के जीव अपने अभिप्रायानुसार पदार्थों के संयोग-वियोग के लिये प्रयत्नशील होते हैं, पर वस्तुतः संयोग-वियोग का कारण तो पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मोदय ही है। प्रियवस्तु का संयोग भी अशुभकर्मोदय के कारण वियोगरूप परिणमित हो जाता है और जिसकी कभी कल्पना भी न की हो - ऐसी वस्तु का संयोग शुभ कर्मोदय के फलानुसार सहज ही प्राप्त हो जाता है - यह सब तो कर्मोदय की विचित्रता है। तुम्हारे द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मोदयानुसार प्राप्त संयोग-वियोग तुम्हारे टालने से नहीं टलेंगे, अतः हे सखी ! तू वृथा क्लेश न कर, खेद का परित्याग करके अपने मन को धैर्य से दृढ़ कर । तुम स्वयं विज्ञ हो, मैं तुम्हें क्या समझाऊँ ? क्या तुम स्वयं नहीं जानती, जो मैं तुम्हें समझा रही हूँ।"
इस प्रकार वसंतमाला ने अत्यन्त स्नेह से अंजना को दिलासा दिलाते हुये उसके आँसू पोंछे और उसके शान्त होने पर वह फिर उससे कहने लगी -
“हे देवी ! यह स्थान आश्रय रहित है, अत: यहाँ से चलें, उठो आगे चलते हैं। यदि समीप ही स्थित पहाड़ में जीव-जन्तुओं रहित कोई गुफा हो तो उसकी खोज करते हैं। तुम्हारे प्रसूति का समय अत्यन्त निकट है, अत: कुछ दिन अत्यन्त सावधानीपूर्वक रहना जरूरी है।"
सखी के आग्रह से अंजना कष्टपूर्वक उसके साथ चलने लगी। वह