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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/३३ में जो भी शरण देगा, वह मेरा शत्रु है।" - इस प्रकार कहकर राजा ने अंजना को अपने राज-द्वार से बाहर करवा दिया।
सखी सहित दुख में सन्तप्त अंजना अपने रिश्तेदारों के यहाँ जहाँजहाँ भी शरण प्राप्त करने पहुंची, वहाँ-वहाँ से उसे असफलता ही प्राप्त हुई। यद्यपि सबके मन में उसके प्रति दयारूप भाव थे, तथापि राजाज्ञा के भय से सबने अपने-अपने दरवाजे बन्द कर लिये। वह विचारने लगी - “अरे रे ! जहाँ पिता ने ही मुझे क्रोधित हो तिरस्कृत कर दिया, वहाँ अन्य की तो बात ही क्या ? ये सब तो राजा के अधीन हैं" - इस प्रकार सबके प्रति उदासीन होकर अंजना अपनी प्रिय सखी से कहने लगी -
“हे सखी ! यहाँ अपना कोई नहीं है। अपने वास्तविक मातापिता एवं रक्षक तो देव, गुरु और धर्म ही हैं, सदा उन्हीं का शरण है। यहाँ तो सब ही पाषाणचित्त हैं, यहाँ अपना वास संभव नहीं है ? चलो ! अब तो हम वन में ही चलें, जहाँ वीतरागी संतों का वास है - ऐसे वन में आत्मसाधनार्थ निवास करेंगे।
चलो सखी अब वहाँ चलें, जहाँ मुनियों का वास ।
आतम का अनुभव करें, वन में करें निवास ।। वनवासी अंजना -
इस प्रकार विचारकर अंजना ने अपनी सखी सहित वन की तरफ प्रस्थान कर दिया, जब वह कंकड़-पत्थरों पर चलते-चलते थक गयी तो वहीं बैठकर रुदन करने लगी – “हाय ! हाय !! मैं मन्दभाग्यनी पूर्व पापोदय के कारण महाकष्ट को प्राप्त हुई हूँ, क्या करूँ ? किसकी शरण में जाऊँ ? कौन करेगा मेरी रक्षा ? अरे ! माता ने भी मेरी रक्षा नहीं की, वह करती तब भी क्या करती ? वह भी तो अपने पति के आधीन है। पिताजी की तो मैं सदा से ही लाड़ली रही हूँ, वे तो मुझे प्यार से अपनी गोद में बिठाते थे, उन्होंने भी बिना परीक्षा के ही मेरा निरादर कर दिया। अरे ! जिस माता ने नौ माह तक मुझे अपने गर्भ में धारण किया, मेग