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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ४ / १६
को यहाँ नहीं रहना है, उससे स्पर्शित होकर आनेवाली हवा भी मुझे कष्टप्रद प्रतीत होती है; अतः चलो, यहाँ से चलें ।
कुमार की आज्ञा पाते ही उनके सम्पूर्ण संघ ने प्रस्थान की तैयारी प्रारम्भ कर दी ; फलतः हाथी, घोड़े, रथ पैदल आदि सेना में कोलाहल का वातावरण व्याप्त हो गया ।
पवनकुमार के संघ के लोग अचानक प्रस्थान का आदेश सुनकर अचम्भित हो उठे कि यह क्या ? बिना कारण प्रस्थान की आज्ञा क्यों ? कोई कहता है कि इसका नाम पवनंजय है, अतः इसका चित्त भी पवन के समान चंचल है।
अंजना का निवास निकट ही होने से कुमार की सेना के प्रस्थान का कोलाहल शीघ्र ही उसके कानों तक जा पहुँचा, उससे उसके हृदय पर मानो वज्रपात ही आ गिरा । वह विचारने लगी- “हाय ! क्या करूँ ? अब क्या होगा ? मेरा तो कोई अपराध भी दिखायी नहीं देता । लगता है मिश्रकेशी द्वारा कथित निंदापूर्ण वचनों की भनक कुमार को लग गयी यही कारण है कि मेरे प्राणनाथ मुझ पर कृपा रहित हो गये और मेरा परित्याग कर प्रस्थान कर रहे हैं। यदि मेरे प्राणनाथ मेरा परित्याग कर देंगे तो मैं भी अन्न-जल का परित्याग कर शरीर त्याग दूँगी।" - इस प्रकार विचार करते-करते कुमारी अंजना बेहोश हो भूमि पर गिर पड़ी।
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अंजना के पिता राजा महेन्द्र को जब कुमार के प्रस्थान के समाचार विदित हुये तो वे अपने बंधुजनों सहित राजा प्रहलाद के निकट आये और दोनों ने कुमार को समझाया - " हे शूरवीर ! प्रस्थान के विचार को निरस्त कर हम दोनों के मनोरथ की सिद्धि करो, गुरुजनों की आज्ञा आनन्ददायिनी होती है, अतः हमारी आज्ञा स्वीकार करो"
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- ऐसा कहकर उन्होंने प्रेमपूर्वक कुमार का हाथ पकड़ लिया। पिता एवं पितातुल्य राजा महेन्द्र के वचनों द्वारा कुमार विनम्र हो