________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/६० ही कषाय अग्नि के द्वारा जलता है। क्रोध से पर का बुरा करने वाला जीव अपने दुख की परम्परा भोगता है, इसलिए जीवों को क्षमाभाव रखना योग्य है।
क्रोध से अन्धे हुए द्वीपायन तापसी ने भवितव्यतावश द्वारिका नगरी को भस्म किया, उसमें कितने ही बालक, वृद्ध, स्त्रियाँ, पशु जल गये और स्वयं द्वीपायन मुनि भी। अनेकों जीवों से भरी हुई वह नगरी छह महिने तक आग में जलती रही.... अरे, धिक्कार हो - ऐसे क्रोध को कि जो स्व-पर का नाश करके संसार बढ़ाने वाला है।
अरे, देखो तो जरा इस संसार की स्थिति ! बलदेव और श्रीकृष्ण वासुदेव ऐसे महान पुण्यवन्त पुरुषों ने कितनी महान विभूति को प्राप्त किया था, जिनके पास सुदर्शनचक्र जैसे अनेक महारत्न थे, हजारों देव जिनकी सेवा करते थे और हजारों राजा जिन्हें शीश नवाते थे। अरे ! भरतक्षेत्र के ऐसे भूपति भी पुण्य समाप्त होने पर श्रीविहीन हो गये। नगरी
और महल सब जल गये, समस्त परिवार का वियोग हो गया, मात्र प्राण ही जिनका परिवार रह गया। कोई देव भी जिनकी द्वारिका को जलने से नहीं बचा सका।
इस प्रकार वे दोनों भाई अत्यन्त शोक के भार से और जीने की आशा से पाण्डवों के पास दक्षिण मथुरा की ओर चले। अरे ! अंसारसंसार ! ऐसे पुण्य-पाप के विचित्र खेल देखकर हे जीव ! तुम पुण्य के भरोसे मत बैठे रहना, शीघ्र आत्महित की साधना करना।
जन्म में या मरण में, फिर सुख में या दुख में। इस संसार में या मोक्ष में, रे जीव ! तू तो अकेला है।
(द्वारिका नगरी भस्मसात हो गयी, फिर श्रीकृष्ण और बलभद्र का क्या हुआ ? पाण्डवों का क्या हुआ ? उसे अगली कहानियों में पढ़िये)