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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/५९ मरण आवे तो भी धर्म की ही दृढ़ता रहती है। अज्ञानी को मरते समय क्लेश होता है, जिससे कुमरण करके कुगति में जाता है और जो जीव सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध है, जिनका परिणाम उज्ज्वल है, वे जीव समाधिपूर्वक मरण करके स्वर्ग में जाते हैं और परम्परा मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
जो जिनधर्मी हैं, उन्हें ऐसी भावना है कि यह संसार अनित्य है, इसमें जो उत्पन्न हुआ है, वह जरूर ही मरेगा। इसलिए हमें अखण्ड बोधसहित समाधिमरण प्राप्त हो। उपसर्ग आने पर भी हमें कायर नहीं बनना चाहिए। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव को हमेशा समाधि की भावना रहती है। धन्य है उन जीवों को जो कि अग्नि की प्रचंड ज्वाला के बीच देह भस्म होने पर भी जिन्होंने समाधि नहीं छोड़ी। शरीर को तजने पर भी समता को नहीं छोड़ा। अहो ! सत्पुरुषों का जीवन निज-पर के कल्याण के लिए ही है। मरण को प्राप्त होने पर भी वे किसी के प्रति द्वेष नहीं विचारते, क्षमा भाव सहित देह छोड़ते हैं। यह जैन संतों की रीति है।
अरे द्वीपायन ! जिनवचन की श्रद्धा छोड़कर तुमने अपना तप भी बिगाड़ा । तुमने अपना घात किया और अनेक जीवों का भी प्रलय किया। दुष्ट भाव को लेकर तुम स्व-पर को दुखदायी हुये। जो पापी परजीवों का घात करता है, वह भव-भव में अपना घात करता है।
जीव जब कषायों के वश हुआ तब वह अपना घात तो कर ही चुका, फिर दूसरे जीवों का घात तो हो या न भी हो, वह उसके कर्माधीन भाग्याधीन है; परन्तु जब जीव ने परजीव के घात का विचार किया, तब उसे जीव हिंसा का पाप तो लग ही चुका और वह आत्मघाती भी हो ही गया। दूसरे को मारने का भाव करना, धधकता लोहे का टुकड़ा दूसरे को मारने के लिए हाथ में लेने जैसा है, अर्थात् सामनेवाला जले या न जले, परन्तु पहले स्वयं तो जलता ही है। वैसे ही कषायवश जीव प्रथम तो स्वयं