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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/५३ जानकर नेमिप्रभु के बताये हुए मोक्षमार्ग की शरण लो। हमारा तो इस भव में संयम का योग नहीं है और बलदेव भी मेरे प्रति मोह के कारण मुनिव्रत नहीं ले पा रहे हैं। मेरे वियोग के बाद वे मुनिव्रत धारण करेंगे। बाकी मेरे सभी भाइयो, यादवो, हमारे वंश के सभी राजाओ, कुटुम्बीजनो और धर्मप्रेमी प्रजाजनो, सभी इस क्षणभंगुर संसार का संबंध छोड़कर शीघ्र जिनराज के धर्म की आराधना करो, मुनि तथा श्रावक के व्रत धारण करो और कषाय अग्नि से जलते हुए इस संसार में से बाहर निकल जाओ।"
श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर बहुत जीव वैरागी होकर व्रत धारण करने लगे। अनेक मुनि हुए, अनेक श्रावक हुए। सिद्धार्थ जो बलदेव का सारथी था, उसने भी वैराग्यमयी मुनिधर्म प्राप्त करने के लिए बलदेव के पास दीक्षा के लिए आज्ञा माँगी। उसी समय बलदेव ने आज्ञा देते हुए कहा
“श्रीकृष्ण के वियोग में जब मुझे संताप उपजेगा, तब तुम मुझे देवलोक से आकर संबोधना और वैराग्य प्राप्त कराना।"
सिद्धार्थ ने उस बात को स्वीकार कर जिनदीक्षा ले ली। द्वारिका के दूसरे अनेक लोग भी बारह वर्ष के लिए नगरी छोड़कर वन में चले गये
और वहाँ व्रत-उपवास, दान-पूजादि में तत्पर हुए, परन्तु वे सभी बारह वर्ष की गिनती भूल गये और बारह वर्ष पूरे होने से पहले ही (बारह वर्ष बीत गये – ऐसा समझकर) द्वारिका नगरी में फिर आकर बस गये। रे होनहार !
इधर द्वीपायन मुनि, जो विदेश में विहार कर गये थे। वे भी भूलकर और भ्रान्ति से बारह वर्ष पूरे हो गये – ऐसा समझकर द्वारिका की ओर आये। वे मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी भी सर्वज्ञ की श्रद्धा से भ्रष्ट होकर मन में यह विचार करने लगे कि बारह वर्ष तो बीत गये। मुझे भगवान ने जो भवितव्य बताया था, वह टल गया। ऐसा विचार कर उन्होंने द्वारिका के