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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/५२ ____ अन्य सब बलभद्र, श्रीकृष्ण आदि यादव द्वारिका की होनहार सुनकर चिंता से दुखित-हृदय द्वारिका आये। द्वारिका तो जैनधर्मियों की नगरी, महा दया धर्म से भरी हुई, वहाँ माँस-मद्य कैसा ? जहाँ नेमिकुमार रहे हैं और जहाँ बलदेव-वासुदेव का राज्य हो, वहाँ माँस और शराब की बात कैसी ? परन्तु कर्मभूमि होने से कोई पापी जीव गुप्तरूप से कभी मद्यादि का सेवन करता हो - ऐसा विचार कर वासुदेव ने द्वारिका नगरी में घोषणा कर दी कि कोई अपने घर में मद्यपान की सामग्री नहीं रखेगा, जिसके पास हो वह शीघ्र नगर के बाहर फेंक दे। ऐसा सुनकर जिसके पास मद्य-सामग्री थी, उन्होंने कदंब वन में उसे फेंक दी और वहाँ वह सूखने लगी।
फिर श्रीकृष्ण ने द्वारिका के सभी नर-नारियों से वैराग्यपूर्ण घोषणा की, नगरी में ढिंढोरा पिटवाया कि मेरे माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्रपुत्री, स्त्री और नगर के लोग, जिसे वैराग्य धारण करना हो, वे शीघ्र ही जिनदीक्षा लेकर आत्मकल्याण करो। मैं किसी को नहीं रोकूँगा। मैं स्वयं व्रत नहीं ले पा रहा हूँ, लेकिन द्वारिका नगरी जलने से पहले जिन्हें अपना कल्याण करना हो, वे कर लें, उन्हें मेरी अनुमोदना है। श्रीकृष्ण को जिन वचनों में परम श्रद्धा थी, उन्होंने अपने सम्यक्तपूर्वक प्रभु के चरणों में विशुद्ध धर्मभावना के भाव से तीर्थंकर प्रकृति बाँधी और धर्मात्मा जीवों की साधना में महान अनुमोदना की।
. श्रीकृष्ण की धर्म घोषणा सुनकर उनका पुत्र प्रद्युम्नकुमार, भानुकुमार आदि जो चरम शरीरी थे। उन्होंने तो जिनदीक्षा ले ही ली थी। सत्यभामा, रुक्मणी, जांबुवती आदि आठ-पटरानियों और दूसरी हजारों रानियों ने भी नेमिप्रभु के समवशरण में जाकर आर्यिका राजमती के संघ में दीक्षा ली। द्वारिका नगरी की प्रजा में से बहुत पुरुष मुनि हुए। बहुत स्त्रियाँ आर्यिका हुईं। श्रीकृष्ण ने सभी को प्रेरणा देते हुए ऐसा कहा -
“संसार के समान कोई समुद्र नहीं, इसलिए संसार को असार