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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/८०
वहाँ से निकलकर वे दोनों भाई सिद्धार्थ नगरी के राजा के यहाँ देशभूषण और कुलभूषण नाम के पुत्र उत्पन्न हुए। अपनी बहिन को देखकर अनजाने में दोनों भाई उसके रूप पर मोहित हो गये, उससे विवाह करने के लिए आपस में लड़ने लगे और एक-दूसरे को मारने के लिए तैयार हो गये। परन्तु जब पता चला कि अरे ! जिसके लिए हम आपस में लड़ रहे थे, वह तो हमारी बहिन है ! - ऐसा पता चलते ही दोनों भाई अत्यन्त शर्मिन्दा हुये और संसार से उदास होकर नगर छोड़कर वन में चले गये और जिनदीक्षा लेकर मुनि हुए ।
जिस समय वे आत्मध्यान में लीन थे, तब भी पूर्वभव का बैरी अग्निप्रभदेव उनके ऊपर उपसर्ग करने आया। तब राम-लक्ष्मण ने उसे भगाकर उपसर्ग दूर किया, उपसर्ग दूर होते ही दोनों मुनियों को केवलज्ञान हुआ, वे दोनों केवली भगवन्त विहार करते-करते अयोध्या नगरी में पधारे। तभी भरत तथा त्रिलोकमण्डन हाथी के जीव को प्रतिबोध हुआ.... ।
अन्त में वे दोनों देशभूषण - कुलभूषण केवली देह की स्थिति पूर्ण होने पर कुंथलगिरि से मोक्ष पधारे।
उन देशभूषण - कुलभूषण केवली भगवन्तों को हमारा नमस्कार हो ।
जन्म-मरण मेरे में नहीं होता, देह के मरण से मेरा मरण नहीं होता, मैं तो सदा जीवन्त चैतन्यमय हूँ। मैं मनुष्य या तिर्यंच नहीं हुआ । मैं तो शरीर से भिन्न चैतन्य ही हूँ ।
यदि मैं शरीर से भिन्न न होता तो शरीर छूटते ही मैं भी समाप्त हो जाता ?
मैं तो जाननहार स्वरूप से सदा जीवन्त हूँ ।