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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/६६ __ अरे, दुर्भाग्य की इस घड़ी में एकमात्र धर्म ही इस शीलवती को शरण है। जब पूर्व कर्म का उदय ही ऐसा हो, तब धैर्यपूर्वक धर्म सेवन ही शरणभूत है, दूसरा कोई शरण नहीं।" उदास अंजना वन में अत्यंत विलाप कर रही है, साथ ही अंजना की सखी भी रो रही है। निर्जन वन में अंजना और उसकी सखी का विलाप इतना करुण था कि उन्हें देखकर आस-पास में रहनेवाली हिरणियाँ भी उदास हो गईं।
बहुत देर तक उनका रुदन चलता रहा....अन्त में विलक्षण चित्तवाली सखी ने धैर्यपूर्वक अंजना को हृदय से लगाकर कहा –
"हे सखी ! शांत हो.......रुदन छोड़ो ! अधिक रोने से क्या ? तुम जानती हो कि इस संसार में जीव को कोई शरण नहीं, यहाँ तो सर्वज्ञ देव, निग्रंथ वीतरागी गुरु और उनके द्वारा कहा गया धर्म-यह ही सच्चे माता-पिता और बाँधव हैं और ये ही शरणभूत हैं, तुम्हारा आत्मा ही तुम्हें शरणभूत है, वह ही सच्चा रक्षक है, और इस असार-संसार में अन्य कोई शरणभूत नहीं है। इसलिए हे सखी ! ऐसे धर्म-चिंतन के द्वारा तू चित्त को स्थिर कर....... और प्रसन्न हो।
हे सखी! इस संसार में पूर्व कर्म के अनुसार संयोग-वियोग होता ही है, उसमें हर्ष-शोक क्या करना ? जीव सोचता कुछ है और होता कुछ है। संयोग-वियोग इसके आधीन नहीं है......यह तो सब कर्म की विचित्रता है। इसलिए हे सखी ! तू व्यर्थ ही दुःखी न हो, दु:ख छोड़कर धैर्य से अपने मन को वैराग्य में दृढ़ कर।"
- ऐसा कहकर स्नेहपूर्वक सखी ने अंजना के आँसू पोंछे। सती अंजना का चित्त शांत हुआ और वह भावना भाने लगी
कर्मोदय के विविध फल, जिनदेव ने जो वर्णये ।
वे मुझ स्वभाव से भिन्न हैं, मैं एक ज्ञायक भाव हूँ। सखी ने अंजना के हितार्थ आगे कहा – “हे देवी ! चलो, इस