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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/५३ चैतन्यरस की अनुभूति करना चाहिये... ऐसे शांत परिणाम के द्वारा मेरी चेतना अन्तर में उतर गई..... मैंने अपने परमात्मस्वरूप के साक्षात् (प्रत्यक्ष) दर्शन किये..... मुझे परम-आनंदमय स्वानुभूति सहित सम्यक्त्व प्राप्त हुआ।
अहा, मुनि भगवंत के एक क्षणमात्र के सत्संग ने मुझे मेरे परमात्मा से मिलाया। मेरा अक्षय चैतन्य निधान मुझे प्राप्त हुआ.....। भव-दुःख का अंत और मोक्ष की साधना का प्रारंभ हुआ। मुनिराज के उपकार की क्या बात ! भाषा के शब्द तो मेरे पास नहीं थे तो भी मन ही मन मैंने उनकी स्तुति की, शरीर की चेष्टा के द्वारा वंदना करके भक्ति व्यक्त की....। प्रभो ! इस पामर जीव को आपने पशुता से छुड़ा दिया .... हाथी का यह भारी शरीर में नहीं, मैं तो चैतन्य परमात्मा हूँ, पल-पल में अन्तर्मुख परिणाम से आनंदमय अमृत की नदी मेरे अन्तर में उछल रही थी...। आत्मा अपने एकत्व में रमने लगा.... चैतन्य की गंभीर शांति में ठहरते हुए इस भव से पार उतर गया.... कषायों की अशान्ति से आत्मा छूट गया... मैं अपने में ही तृप्त-तृप्त हो गया।
सम्यग्दृष्टि हुआ हाथी कहता है - "मेरी ऐसी दशा देखकर संघ के मनुष्यों को भी बहुत आश्चर्य हुआ। यह कैसा चमत्कार ! कहाँ एक क्षण पहले का पागल हाथी ! और कहाँ यह वैराग्य भाव से शान्तरस में सराबोर हाथी !"
मुनिश्री ने उन्हें समझाते हुए कहा -
"हे जीवो ! यह हाथी एकाएक शान्त हो गया - यह कोई चमत्कार नहीं, यह तो चैतन्यतत्त्व की साधना का प्रताप है। ..... अथवा इसे चैतन्य का चमत्कार कहो..... कषाय आत्मा का स्वभाव नहीं है, आत्मा का स्वभाव तो शान्त-चैतन्यस्वरूप है - उसे लक्ष्य में लेते ही आत्मा क्रोध से भिन्न अपने अतीन्द्रिय चैतन्य सुख का अनुभव करता है।