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जैनधर्म की कहानियाँ भाग- २/३५
एक दिन सुकौशल राजमहल की छत पर बैठकर अयोध्या नगरी की सुन्दरता देख रहे थे। उनकी माता सहदेवी और धायमाता भी वहीं थी । इसी समय एकाएक नगरी के बाहर नजर पड़ते ही राजकुमार को कोई महातेजस्वी मुनिराज नगरी की ओर आते दिखे; लेकिन राज्य के सिपाहियों ने उन्हें दरवाजे के बाहर ही रोक दिया, वह समझ नहीं पाया कि वे आनेवाले महापुरुष कौन हैं और पहरेदार उन्हें क्यों रोक रहे हैं ?
दूसरी ओर सहदेवी ने भी उन मुनिराज को देखा...... वे कोई दूसरे नहीं, महाराज कीर्तिधर ही थे, जिन्होंने १५ दिन के सुकौशल को छोड़कर दीक्षा ले ली थी। उनको देखते ही रानी को डर लगा कि अरे, उनके वैराग्य उपदेश से मेरा पुत्र भी कहीं संसार छोड़कर न चला जावे, इसलिए रानी सहदेवी ने सेवकों को आज्ञा दी
“यहाँ कोई गंदगीयुक्त अनजान नग्न पुरुष नगरी में आये हैं और हमारे पुत्र सुकौशल को भ्रमित करके ले जावेंगे, इसलिए उन्हें नगरी में प्रवेश नहीं करने देवें। इसीप्रकार नगरी में कोई दूसरे नग्न साधु आवें तो उनको भी मत आने देवें, जिससे मेरा पुत्र उन्हें न देख पावे ।
मेरे पति कीर्तिधर पंद्रह दिन के छोटे बालक को छोड़कर चले गये थे, तब उन्हें दया भी नहीं आयी थी । " - इसप्रकार सहदेवी ने साधु बने अपने पति के प्रति ऐसे अनादरपूर्ण वचनों से कई बार तिरस्कार किया..... ।
" अरे रे ! यह दुष्ट रानी साधु बने अपने स्वामी का अपमान करती है । " - यह देखकर धायमाता की आँख में से आँसू गिरने लगे । राजकुमार सुकौशल का कोमल हृदय यह दृश्य न देख सका, उसने तुरन्त धामाता से पूछा
"माँ, यह सब क्या है ? वे महापुरुष कौन हैं ? उन्हें नगरी में क्यों आने नहीं देते ? और उन्हें देखकर तू क्यों रो रही है ?"