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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/३३
सुर्कोशल का वैराग्य इस कथा के पूर्व आपने जिनके वैराग्य की कथा पढी, उन वज्रबाहु के छोटे भाई पुरंदर अयोध्या के राजा थे। उन्होंने अपने पुत्र कीर्तिधर को राज्य सौंप कर मुनिदीक्षा ले ली।
राजा कीर्तिधर का मन संसार-भोगों से विरक्त था, वे धर्मात्मा राजपाट के बीच में भी संसार-भोगों की असारता का विचार करते हुए मुनिदशा की भावना भाते थे। ..
एक दिन दोपहर के समय आकाश में सूर्यग्रहण देखकर उनका मन उदास हो गया और वे संसार की अनित्यता का विचार करने लगे। अरे, जब यह सूर्य भी राहु के द्वारा ढक जाता है, तब इस संसार के क्षण-भंगुर भोगों की क्या बात ! वे तो एक क्षण में विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए उनका मोह छोड़कर मैं आत्महित करने के लिए जिनदीक्षा अंगीकार करूँगा। राजा कीर्तिधर ने अपने वैराग्य का विचार मंत्रियों के सामने रखा।
__मंत्रियों ने कहा- “महाराज ! आपके बिना अयोध्या नगरी का राज्य कौन संभालेगा ? अभी आप जवान हो......फिर भी जैसे आपके . पिता ने आपको राज्यभार सौंपकर जिनदीक्षा ली थी, वैसे ही आप भी अपने पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षा ले लेना।"
-इस प्रकार मंत्रियों ने विनती की। इससे राजा ने ऐसी प्रतिज्ञा ली कि पुत्र के जन्म का समाचार सुनते ही उस ही दिन उसका राज्याभिषेक करके मैं मुनिव्रत धारण करूँगा।
थोड़े समय बाद, कीर्तिधर राजा की रानी सहदेवी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया.....उसका नाम सुकौशल रखा गया। यही सुकौशल कुमार अपनी इस कथा के कथानायक हैं।