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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/३१ दूसरी और मनोदया ने भी पति और भाई के समान सांसारिक मोह छोड़कर आभूषण त्याग कर वैराग्यपूर्वक आर्यिका के व्रत धारण किये। साथ ही अनेक अन्य रानियाँ भी आर्यिका हुई और एकमात्र सफेद वस्त्र को धारण करके देह में चैतन्य की साधना के द्वारा सुशोभित होने लगीं। स्फटिकमणि समान शुद्धोपयोग के आभूषण से सभी आत्मायें सुशोभित हो उठीं। उसी प्रकार वज्रबाहु आदि सब मुनिराज शुद्धोपयोग के द्वारा सुशोभित होने लगे। धन्य है उन राजपुत्रों को ! और धन्य है उन राजरानियों को !!
जिस समय वज्रबाहु आदि की दीक्षा का समाचार अयोध्या में पहुँचा, उसीसमय उनके पिता सुरेन्द्रमन्यु तथा दादा विजय महाराज भी संसार से विरक्त हुए। अरे, अभी नवपरिणत युवा-पौत्र संसार छोड़कर मुनि हुए और मैं वृद्ध होते हुए भी अभी तक संसार के विषयों को नहीं छोड़ा और इन राजकुमारों ने संसार भोगों को तृणवत् समझकर छोड़ दिया और मोक्ष के अर्थ शांतभाव में चित्त को स्थिर किया।
ऊपर से सुंदर लगनेवाले विषयों का फल बहुत कटु होता है, यौवन दशा में शरीर का जो सुंदर रूप था, वह भी वृद्धावस्था में कुरूप हो जाता है। शरीर और विषय क्षणभंगुर हैं, ऐसा जानते हुए भी हम विषय-भोगरूपी कुएँ में डूबे रहे, तब हम जैसा मूर्ख कौन होगा ? ऐसा विचार करके वैराग्य भावना भायी, सब जीवों के प्रति क्षमाभाव पूर्वक विजय महाराज तथा उनके अन्य पुत्र भी जिनदीक्षा लेकर मुनि हुए। अरे... पौत्र के मार्ग पर दादा ने गमन किया। धन्य जैनमार्ग ! धन्य मुनिमार्ग !! धन्य हैं उस मार्ग पर चलनेवाले जीव !!!
__विजय महाराज ने दीक्षा लेने के पूर्व बज्रबाहु के भाई पुरन्दर कों राज्य सोंपा । पुरन्दर राजा ने अपने पुत्र कीर्तिधर को राज्य सौंपकर दीक्षा