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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/२९ वहाँ पर सभी की बातचीत सुन रहे २६ राजकुमार भी एक साथ बोल उठे– “हम भी वज्रबाहु के साथ ही दीक्षा लेंगे!"
दूसरी ओर से महिलाओं के समूह में से राजरानियों की भी आवाज आयी- “हम सभी भी मनोदया के साथ अर्जिका के व्रत लेंगी।"
बस, चारों ओर...गंभीर वैराग्य का वातावरण फैल गया। राजसेवक तो घबराहट से देख रहे हैं कि इन सबको क्या हो गया है ? इन सब राजकुमारों और राजरानियों को यहाँ छोड़कर हम राज्य में किस प्रकार जावें? वहाँ जाकर इन राजकुमारों के माता-पिताओं को क्या जवाब देंगे।
बहुत सोच-विचार करने के बाद एक मंत्री ने राजपुत्रों से कहा
“हे कुमारो ! तुम्हारी वैराग्य भावना धन्य है....लेकिन हमें मुश्किल में मत डालो......तुम हमारे साथ घर चलो और माता-पिता की आज्ञा लेकर फिर दीक्षा ले लेना....."
तब वज्रबाहु बोले- “अरे, संसार बंधन से छूटने का अवसर आया, यहाँ माता-पिता को पूछने के लिए कौन रुकेगा ? हमें यहाँ आने के लिए माता-पिता मोह के वश होकर रोकेंगे, इसलिए तुम सब जाओ
और माता-पिता को यह समाचार सुना देना कि आपके पुत्र मोक्ष को साधने के लिए गये हैं, इसलिए आप दुःखी मत होइये।"
____तब मंत्री ने कहा- “कुमारो ! तुम हमारे साथ भले ही न चलो, परन्तु जब तक हम माता-पिता को खबर दें, तब तक यहीं रुक जाओ।"
___“अरे ! हमें एक क्षण के लिए भी यह संसार नहीं चाहिये......जैसे प्राण निकलने के बाद फिर शरीर शोभा नहीं देता, उसीप्रकार जिससे हमारा मोह छूट गया, ऐसे इस संसार में अब क्षणमात्र के लिए भी हमें अच्छा नहीं लगता।"