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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/२३
मणिकेतुदेव ने अपने वास्तविक स्वरूप में आकर सभी मुनि भगवन्तों को नमस्कार किया। तथा अपने मित्र के हित के लिए यह सब माया करनी पड़ी, इसके लिए क्षमा माँगी। मुनिराजों ने उसे सांत्वना दी
और कहा- “अरे ! इसमें तुम्हारा क्या अपराध है ? किसी भी प्रकार से जो धर्म में सहायता करे, वही परमहितैषी सच्चा मित्र है। तुमने तो हमारा परमहितरूप काम किया है।"
इसप्रकार मणिकेतुदेव का मित्र को मोक्षमार्ग की प्रेरणा देने का कार्य सिद्ध हुआ, साथ ही साथ ६० हजार राजकुमारों ने भी मुनिधर्म अंगीकार किया; अत: वह प्रसन्नचित्त से स्वर्ग में वापस चला गया।
सगर-मुनिराज तथा ६० हजार राजकुमार (मुनिराज) - ये सब आत्मा के ज्ञान-ध्यानपूर्वक विहार करते हुए अन्त में सम्मेदशिखरजी पर आये और शुक्लध्यान के बल से केवलज्ञान प्रकट करके मोक्षपद को प्राप्त किया। उन्हें हमारा नमस्कार हो।
शास्त्रकार कहते हैं कि जगत में जीवों को धर्म की प्रेरणा. देनेवाले मित्र के समान हितकारी अन्य कोई नहीं है।
“सच्चा मित्र हो तो ऐसा - जो धर्म की प्रेरणा दे।"
डरना और डराना दोनों कायरता है।