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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/२१ से बलवान कोई नहीं है और मृत्यु से कोई बच नहीं सकता- ऐसा आप कहते हो तो मैं आपको एक गंभीर समाचार सुनाऊँ, उसे सुनकर आप भी भयभीत मत होना, आप भी संसार से वैराग्य लेकर मोक्ष की साधना में तत्पर होना।"
सगर चक्रवर्ती ने आश्चर्य से कहा- “अरे ब्राह्मण देव ! कहो, ऐसा क्या समाचार है ?"
ब्राह्मण रूपधारी मित्र ने कहा- "हे राजन् ! सुनो, तुम्हारे ६० हजार पुत्र कैलाशपर्वत पर गये थे, वहाँ वे सब मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं। उनको भयंकर सर्प ने डस लिया है, एक भी नहीं बच सका......एक साथ ६० हजार पुत्रों को मारनेवाले दुष्ट यमराज को जीतने के लिए आपको भी मेरे समान मोह छोड़कर शीघ्र दीक्षा ले लेना चाहिये और मोक्ष का साधन करना चाहिये। इसलिए चलो......हम दोनों एकसाथ दीक्षा ले लेवें।"
ब्राह्मण के वज्रपात जैसे वचन सुनकर ही राजा का हृदय छिन्नभिन्न हो गया और पुत्रों के मरण के आघात से वे बेहोश हो गये। जिन पर अत्यंत स्नेह था - ऐसे ६० हजार राजकुमारों के एक साथ मरण होने की बात वे सुन न सके, सुनते ही उन्हें मूर्छा आ गयी। लेकिन वह चक्रवर्ती आत्मज्ञानी था......थोड़ी देर बाद बेहोशी समाप्त होने के बाद होश में आते ही उनकी आत्मा जाग उठी, उन्होंने विचार किया
“अरे! व्यर्थ का खेद किसलिए? खेद करानेवाली यह राज्यलक्ष्मी या पुत्र-परिवार कुछ भी मेरे नहीं हैं, मेरी तो एक ज्ञानचेतना ही है। अब मुझे पुत्रों का अथवा किसी का भी मोह नहीं है। अरे रे ! अब तक मैं व्यर्थ ही मोह में फँसा रहा। मेरे देव-मित्र (मणिकेतु) ने आकर मुझे समझाया भी था, फिर भी मैं नहीं माना । अब तो पुत्रों का भी मोह छोड़कर मैं जिनदीक्षा लूँगा और अशरीरी सिद्धपद की साधना करूँगा।