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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/१७
मित्र की ऐसी दशा देखकर, "इसको अभी भी मुक्ति का मार्ग दूर है" - ऐसा विचार कर वह देव अपने स्थान पर चला गया, सच ही है कि ज्ञानी पुरुष दूसरे के अहित की तो बात ही नहीं करता, परन्तु हित की बात भी योग्य समय विचार कर ही करता है। अरे, धिक्कार है ऐसे संसार को कि जिसकी लालसा मनुष्य को अपने वचनों से च्युत कर देती है । सगर चक्रवर्ती तो ज्ञानी थे, फिर भी वे भोग आसक्ति के कारण चारित्र दशा लेने के लिए तैयार नहीं हुए।
बहुत समय बाद, वह मणिकेतु देव फिर से इस पृथ्वी पर आया, अपने मित्र को संसार से वैराग्य कराकर मुनिदशा अंगीकार करवाने के लिए। इससमय उसने दूसरा उपाय विचार किया । उसने चारण ऋद्धिधारी छोटे कद के मुनि का रूप धारण किया । वे तेजस्वी मुनिराज अयोध्या नगरी में आये और सगर चक्रवर्ती के चैत्यालय में जिनेन्द्र भगवान को वंदन कर स्वाध्याय करने बैठ गये। इसी समय सगर चक्रवर्ती भी चैत्यालय आये और उसने मुनिराज को देखा, मुनि को देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ और भक्ति से नमस्कार करके पूछा
"प्रभो ! आपका तो अद्भुत रूप है, आपने इतनी छोटी उम्र में ही मुनिपद कैसे ले लिया ?
उससमय अत्यंत वैराग्य से उन चारण ऋद्धिधारी मुनिराज ने कहा- “हे राजन् ! देह का रूप तो पुद्गल की रचना है और इस जवानी का कोई भरोसा नहीं, जवानी के बाद बुढ़ापा आयेगा ही, इसका मुझे विश्वास नहीं । आयु तो प्रतिदिन घटती जाती है। शरीर तो मल का धाम है, विषयों के पाप से भरा हुआ है, उसमें दुःख ही है - यह अपवित्र अनित्य और पापमय संसार का मोह क्यों ? यह छोड़ने योग्य ही है।
वृद्धावस्था की राह देखते हुए धर्म में आलस करके बैठे रहना तो मूर्खता है । प्रिय वस्तु का वियोग और अप्रिय वस्तु का संयोग संसार में