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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/१५ सगर चक्रवर्ती और साठ हजार राजकुमारों का
वैराग्य (जीव को धर्म में मदद करे, वही सच्चा मित्र)
इस भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हुए, उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत हुए। बाद में दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ हुए, उनके शासनकाल में सगर नाम के दूसरे चक्रवर्ती हुए।
सगर चक्रवर्ती पूर्वभव में विदेह क्षेत्र में जयसेन नाम के राजा थे, उन्हें अपने दो पुत्रों से बहुत स्नेह था, उनमें से एक पुत्र के मरण होने पर वे मूर्छित हो गये, पश्चात् शरीर को दुःख का ही धाम समझ कर जन्ममरण से छूटने के लिए दीक्षा लेकर मुनि हुए। तब उनके साले महारूप ने भी उनके साथ दीक्षा ले ली, दूसरे हजारों राजा भी दीक्षा लेकर मुनि हुए और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध मोक्षमार्ग को साधने लगे।
जयसेन और महारूप- ये दोनों मुनिराज समाधि-मरणपूर्वक देह छोड़कर सोलहवें अच्युत स्वर्ग में देव हुए। वे दोनों एक दूसरे के मित्र थे
और ज्ञान-वैराग्य की चर्चा करते थे। एक बार उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि हम में से जो भी पहले पृथ्वी पर अवतार लेकर मनुष्य होगा, उसे दूसरा देव प्रतिबोध देगा अर्थात् उसे संसार के स्वरूप को समझाकर वैराग्य उत्पन्न कराकर और दीक्षा लेने की प्रेरणा करेगा। इसप्रकार धर्म में मदद करने के लिए दोनों मित्रों ने एक-दूसरे के साथ प्रतिज्ञा की। सच ही है सच्चा मित्र वही है, जो धर्म में मदद करे।
अब उनमें से प्रथम जयसेन राजा के जीव ने बाईस सागरोपम तक देवलोक के सुख भोग कर आयु पूर्ण होने पर मनुष्य लोक में अवतार लिया। भरत क्षेत्र में ही जहाँ पहले दो तीर्थंकर और भरत चक्रवर्ती ने अवतार लिया था, उसी अयोध्या नगरी में उन्होंने अवतार लिया। उनका नाम था सगरकुमार । वे दूसरे चक्रवर्ती हुए और छह खण्ड पर राज्य करने