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योगबिंदु सभी द्वन्द्वों को समता पूर्वक सहन करने की शक्ति प्राप्त होती है । द्वन्दों का अभाव हो जाता है। बाह्य परिस्थितियाँ साधक की साधना में अनुकूलता प्रदान करती हैं। किन्तु इन सब के लिये काल की अपेक्षा रहती है ॥५३॥
धृतिः क्षमा सदाचारो, योगवृद्धिः शुभोदया ।
आदेयता गुरुत्वं च, शमसौख्यमनुत्तमम् ॥५४॥ अर्थ : शुभोदय करने वाले धृति, क्षमा, सदाचार, तथा योगवृद्धि, आदेयता, गुरुत्व और अनुत्तर ऐसी परम शान्ति का सुख भी (योग से प्राप्त होता है ) ॥५४॥
विवेचन : शुभोदय-उत्तमोत्तम प्रशस्त फल देनेवाले धुति-वर्तमान परिस्थिति में परम सन्तोष; क्षमा-निमित्त और शक्ति होने पर भी क्रोध न करना; सदाचार-शिष्ट व्यवहार, सद्व्यवहार; योगवृद्धि-सम्यक्-दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उत्तरोत्तर प्रगति-विकास; आदेयता-लोगों से आदर प्राप्त होना; गुरुत्व-सर्वत्र गौरव लाभ होना और अन्त में अनुत्तर-जिस सुख के प्राप्त करने पर दूसरा कोई सुख शेष नहीं रहता, ऐसा परम शान्ति का सुख प्राप्त होता है।
योग की साधना करने वाला साधक परम सन्तोषी परमशान्तिवाला, सदाचारी अपने लक्ष्य में प्रगतिशील होता है । परिणाम स्वरूप लोगों से आदर, मान, पूजा प्राप्त करके, इस योग से परमशान्ति-परमसुख का अनुभव करता है ॥५४॥ ।
आविद्वदङ्गनासिद्धमिदानीमपि दृश्यते ।
एतत् प्रायस्तदन्यत् तु, सुबह्वागमभाषितम् ॥५५॥ अर्थ : अभी (इस कलियुग में) भी योग की महत्ता विद्वान् से लेकर स्त्रियों तक में भी प्रायः सर्व प्रसिद्ध है । इसके अतिरिक्त इस विषय में आगमों में भी बहुत अच्छी तरह से बताया है उसे यहाँ बताते हैं ॥५५॥
विवेचन : योग की महत्ता प्रायः सर्वत्र प्रसिद्ध है केवल-लोक में ही नहीं आगमों में भी इसके बहुत प्रमाण मिलते हैं । योगियों के अनुभवों का वर्णन आगमों में मिलता है । आवश्यक नियुक्ति में इस प्रकार कहा है :
आमोसहि, विप्योसहि, खेलोसहि जल्लमोसहिचेव । संभिन्नसोय उज्जुमई, सव्वोसहि चेव बोधव्वा ॥ चारण आसीविस केवली य, मणणाणीणो नव पुव्वधरा । अरहन्त चक्रवट्टी बलधरा वासुदेवा य ॥