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नक्शेकदम चलकर जिनशासन पर कुर्बान हो गये । अनासक्त योगियों जैसी जल में कमलवत् वृत्ति प्रवृत्ति अद्भुत जीवन पद्धति एवं अद्भुत गुणश्रेणी इसी बात को पुष्ट करती है वे जल्दी तरने वाले आत्मा थे।
पू. मृगावतीश्री जी महाराज ने अपने विद्यागुरु पू. पंडितवर्य बेचरदासजी की प्रेरणा पाकर मुझे प. पू. आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज के उत्कृष्टकोटि के "योगबिन्दु" ग्रंथ का हिन्दी
अनुवाद करने की प्ररेणा एवं आर्शीवाद देकर यह कार्य प्रारंभ करवाया । आज आपके चरणों में नत मस्तक हो कर कोटि-कोटि वंदना करती हूँ । हे मेरे गुरु महाराज ! ऐसा सुनहरा अवसर प्रदान करके आपने मेरे उपर अनन्त अनन्त उपकार किया है जिसके लिये मैं सदा आपकी ऋणी हूँ। सविनय कृतज्ञता पूर्वक यह ग्रंथ आपके करकमलों में समर्पण करके आपका और पू. पंडितजी का भी आभार प्रकट करती हूँ।
हमने पूर्वजन्म में सच्चे हीरे मोतियों का दान दिया होगा । पूर्वजन्म का हमारा पुण्यपुंज उदय होगा जो हमें सत्तयुग के सन्तों का समागम हुआ । अन्तर आत्मा चाहती है हमारे सभी के जीवनशिल्पी दादी गुरु प. पू. शीलवतीश्रीजी महाराज, स्थितप्रज्ञ पू.मृगावतीश्रीजी महाराज एवं सेवा, साधना एवं समर्पण की साक्षात् मूर्ति पू. गुरु बहन सुज्येष्ठाश्रीजी महाराज तीनों का सदा सदा पावन सानिध्य-छत्रछाया भवोभव में मिलता रहे । जिन्होंने जीना भी सिखाया, मरना भी सिखाया, वीतराग प्रभु के सच्चे पथ पर चलना भी सिखाया । मैं प्रतिदिन प्रार्थना करती हूँ हे प्रभु ! जब तक मेरी आत्मा मुक्त न हो मुझे पू.मृगावतीश्री जी महाराजजी के चरणों में वीतराग प्रभु की दीक्षा उदय में आए । इन्हीं शुभ भावनाओं के साथ तीनों को पुनः पुनः कोटि कोटि सविनय वंदन ।
साध्वी सुव्रताश्री
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