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आचार्य हरिभद्रसूरि (वि.सं. ७५७-८२७) ने सभी दर्शनों के सिद्धान्तों का जैन दर्शन में समन्वय करके अविरोध दर्शाया है जो वस्ततः अनेकान्तवाद का सही अर्थों में पालन है। उनकी यह शैली योगबिन्दु में अत्यंत उत्कृष्टता के साथ दृष्टिगत होती है। भारत में अनेकविध योग की परंपराएँ प्रचलित हैं उन सभी के मार्ग एवं सिद्धान्त भिन्न-भिन्न हैं किन्तु गन्तव्य सबका एक ही है वह है- मोक्ष
मोक्ष की प्राप्ति हेतु भिन्न-भिन्न प्रकार का पुरुषार्थ किया जाता है अतः मार्ग भिन्न होते हुए भी सभी का गन्तव्य एक ही होने के कारण अविरोध है। यह उनकी सहज अभिव्यक्तिकी अनुपम उपलब्धि है।
हिन्दी अनुवाद एवं व्याख्या का दुरुह कार्य महत्तरा साध्वी मृगावतीश्रीजी म. की विदूषी शिष्या साध्वी सुव्रताश्रीजी ने सरल एवं सुबोध भाषा में प्रस्तुत किया है। विषय को सहज करने के लिए आगम, आगमेतर, जैन-जैनेतर साहित्य एवं आध्यात्मिक ग्रंथों से गाथाए, श्लोक एवं पंक्तियाँ उद्धृत की है जिससे योग और सिद्धान्त जैसे जटिल एवं अनुभवगम्य विषय को अत्यंत सरल कर दिया है।
प्रस्तुत ग्रंथ को सर्वाङ्गीण बनाने हेतु डॉ. जितेन्द्र बी. शाह ने योगबिन्दु का संपादन एवं प्रस्तावना लिखने में अपनी विद्वत्ता का बहुत सुन्दर परिचय दिया है। उन्होंने ग्रंथगत समस्त ज्ञानराशि को संक्षिप्त, सुव्यवस्थित और सुबोध रूप में विद्वद् जगत् के समक्ष रखा है। जैन योग शास्त्र के मूल स्वरूप के अवबोध हेतु इस सुन्दर कृति को वाचकों का स्नेह प्राप्त होगा।