________________ योगबिंदु एतच्चान्यत्र महता प्रपञ्चेन निरूपितम् / नेह प्रतन्यतेऽत्यन्तं लेशतस्तूक्तमेव हि // 83 // अर्थ : यह हकीकत अन्यत्र खूब विस्तारपूर्वक कही है। इसलिये यहाँ तो संक्षेप से बताया है। अधिक विस्तार नहीं किया गया है // 83 / / विवेचन : स्वभाव, काल, नियति, पुरुषप्रयत्न कर्म आदि मिलकर ही कार्य सिद्ध करते हैं अकेला कुछ नहीं कर सकता / इस हकीकत का विशद वर्णन, युक्तिपूर्वक, दृष्टान्त देकर 'शास्त्रवार्ता समुच्चय', 'धर्मसंग्रहणी' आदि ग्रंथों में विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया है। जिनको इस विषय की विशद् जानकारी चाहिये, वे इन ग्रंथों को पढ़कर प्राप्त कर सकते हैं / यहां तो इस ग्रंथ में जितना उपयोगी था उसे ही संक्षिप्त करके बताया है। अधिक-विशेष विस्तार नहीं किया है // 83 / / कृतमत्र प्रसंगेन प्रकृतं प्रस्तुमोऽधुना। नाध्यात्मयोगभेदत्वादावर्तेष्वपरेष्वपि // 84 // अर्थ : यहाँ इतना ही उपयुक्त है; अब हम प्रकृतमूल विषय पर आते हैं / अध्यात्म-जो योग का एक भेद है, वह चरम पुद्गलपरावर्त जीव के अतिरिक्त अन्य को प्राप्त नहीं होता // 84 // विवेचन : कालादि का विशेष विवेचन यहाँ अधिक उपयोगी नहीं इसलिये योग का जो मुख्य विषय चल रहा था, अब उसी सम्बन्ध में कहते हैं - कि चरम पुद्गलपरावर्त में ही अध्यात्म की प्राप्ति हो सकती है / इससे अन्य चरम व्यतिरिक्त अनन्त पुद्गलपरावर्त वाले को योग की प्राप्ति नहीं होती // 8 // तीव्रपापाभिभूतत्वाज्ज्ञानलोचनवर्जिताः / सद्ववितरन्त्येषु, न सत्त्वा गहनान्धवत् // 85 // अर्थ : चरम पुद्गलपरावर्त से अन्य परावर्तों में तीव्र पाप से अभिभूत-घिरे हुये होने से ज्ञानचक्षुरहित प्राणी गहन अटवी में (जन्मान्ध) अन्ध व्यक्ति की भाँति सद्मार्ग को प्राप्त नहीं कर सकते हैं // 85 // विवेचन : जैसे कोई जन्मान्ध प्राणी गहन जंगल में मार्ग भूल जाय तो सैकड़ों मुसीबतों को उठाकर भी वह इष्ट मार्ग को नहीं पा सकता, वैसे ही चरम पुद्गलपरावर्त से अन्य अनन्त पुद्गलपरावर्त में भटकता हुआ प्राणी, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमादादि अशुभ योगों की तीव्रता से पापकर्मों में जकड़ा हुआ-घिरा हुआ; ज्ञानरूपी लोचन से रहित अर्थात् योग्य-अयोग्य, कृत्यअकृत्य, भक्ष्य-अभक्ष्य, सत्य-असत्य, पेय-अपेय के विवेक से शून्य; सम्यग्ज्ञानरूपी आँखों से रहित