________________ योगबिंदु अर्थ : महापुरुषों ने अध्यात्म के सिवाय अन्य सम्यक् उपाय नहीं बताया, किन्तु इस संसार समुद्र में प्राणियों के लिये अध्यात्म भी अत्यन्त दुर्लभ हैं // 71 / / विवेचन : कर्म-बन्धनों से मुक्त होने का सर्वश्रेष्ठ उपाय महापुरुषों ने अध्यात्म को बताया है, क्योंकि अध्यात्मभाव का आलम्बन करने वाले जीवों को जगत के सभी पदार्थों के गुण और दोषों का यथार्थ अनुभवरूप सत्यज्ञान प्राप्त होता है और सम्यक्-दर्शन द्वारा संसार को बढ़ाने वाले मोहरूपी अज्ञान के बीज का नाश होता है और शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, परन्तु संसार समुद्र में भ्रमण करते हुये प्राणियों को अध्यात्म की प्राप्ति भी अत्यन्त दुर्लभ है ऐसा पूर्वो के रचयिता महापुरुषों ने बताया है, इसलिये अध्यात्म से अन्य, यज्ञ याग, देवियों को पशुबलि देना, आत्मघात आदि अशुद्ध-हिंसक उपायों से आत्म तत्त्व के दर्शनरूप, सम्यक्-दर्शन को प्राप्त नहीं होता / अध्यात्म वस्तुतः ही जीवों को बड़ा दुर्लभ है / उत्तराध्ययन सूत्र में तो श्रद्धा को भी दुर्लभ बताया है : चत्तारि परमंगाणि दुलहाणि इह जंतुणो / माणुसत्तं सुइसद्धा संजमं वीरिअं // मनुष्यत्व, शुद्ध श्रद्धा, संयम और आचरण की प्राप्ति मनुष्य के लिये अति दुर्लभ है। संसारचक्र में भटकते प्राणियों को बड़े पुण्ययोग से अध्यात्म की प्राप्ति होती है / सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति, अध्यात्मभाव की उपलब्धि बड़ी कठिन साध्य है, सभी को सहज में नहीं मिलती // 71 / / चरमे पुद्गलावर्ते, यतो यः शुक्लपाक्षिकः / भिन्नग्रन्थिश्चरित्री च तस्यैवैतदुदाहृतम् // 72 // अर्थ : जो चरम पुद्गल परावर्त में हो; शुक्लपाक्षिक हो, जानना वही आत्म ग्रंथिभेद करने वाली और चरित्र पालने वाली होती है, ऐसा पूज्य पुरुषों का कथन है // 72 // विवेचन : चरम पुद्गलपरावर्त जैन पारिभाषिक शब्द है। अनन्तकाल चक्रों का एक पुद्गलपरावर्त होता है। विषय कषायों में आसक्त जीव ऐसे अनन्त पुद्गलपरावर्तों में अनादि काल से भटक रहा है / परन्तु जब साधना करते-करते जीव की ऐसी स्थिति आ जाती है कि संसार-चक्र कम होते-होते अन्तिम पुद्गल परावर्त रह जाता है, उसे चरम पुद्गलावर्त कहते हैं / शुक्ल पाक्षिक-अपार्ध पुद्गल परावर्त-कुछ न्यून अर्ध पुद्गलपरावर्त वाले साधक को कहते हैं। उसमें भी भिन्न ग्रंथी-कर्मग्रंथी से मुक्त निग्रंथ अर्थात् जिसने अपूर्वकरण रूपी वज्र के प्रहार से अत्यन्त गाढ़ राग-द्वेष, मोह के अध्यवसायों को छिन्न भिन्न कर दिया है / ऐसे साधक को तथा देशविरति चारित्री, सर्वविरति चारित्रधारी आत्मा को अध्यात्म की प्राप्ति होती है // 72 // प्रदीर्घभवसद्भावान्मालिन्यातिशयात् तथा / अतत्त्वाभिनिवेशाच्च, नान्येष्वन्यस्य जातुचित् // 73 //