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योगबिंदु दूषणों से रहित परमात्मा को सुदेव मानना; सर्व प्राणियों पर करुणासभर हृदय रखने वाले, उत्कृष्ट यम, नियम पालने वाले, सत्यमोक्षमार्ग का उपदेश देने, पाँचों इन्द्रियों को संयम में रखने वाले, नौ प्रकार से ब्रह्मचर्य को पालने वाले, पांच समिति और तीन गुप्ति को धारण करने वाले सुदेव हैं और शांति, सत्य, शौच, अकिञ्चनता, दया, दान, ब्रह्मचर्य, तप, भाव, मैत्री-प्रमोदादि भाव, दस प्रकार का यतिधर्म हैं । बीमार, ग्लान, वृद्ध तपस्वी की वैयावच्च करना, वीतराग परमात्मा की प्रतिमा तथा मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाना, ज्ञानप्राप्ति के कारणभूत आगम और पुस्तकों को लिखवाना, शुद्ध करवाना, उनका नाश न हो जाय ऐसी व्यवस्था करवाना, ज्ञान भण्डारों की व्यवस्था करवाना। साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका आदि की आत्म समाधि में स्थिरता रहे तदर्थ उपाश्रय आदि बनवाना, धर्म कार्य में उपयोगी स्थान की शुद्धि करवाना, जीर्णोद्धार करवाना, जहाँ न हो, वहाँ पर नया बनवाना इस प्रकार धर्म कार्यों में, ध्यान-समाधि में मदद मिले ऐसे कार्य करवाने से जीव को जाति स्मरण ज्ञान (पूर्व जन्म की स्मृति) प्राप्त होती है। इन सभी साधनों से जीव को जब जाति-स्मरण ज्ञान हो जाता है, तो परलोक स्वयं ही प्रत्यक्ष हो जाता है, फिर किसी दूसरे प्रमाण की जरूरत ही नहीं रहती ॥५७-५८॥
अत एव न सर्वेषामेतदागमनेऽपि हि ।
परलोकाद् यथैकस्मात् स्थानात् तनुभृतामिति ॥५९॥ अर्थ : परलोक से आने पर सभी प्राणियों को जातिस्मरण नहीं होता, जैसे एकस्थान से (दूसरे स्थान पर) आने वाले सभी मनुष्यों को पूर्व की स्मृति नहीं रहत ॥५९॥
विवेचन : जिन्होंने पूर्वजन्म में उपरोक्त ब्रह्मचर्यादि की आराधना की हो, जिनके ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम हुआ हो, उसे ही पूर्वजन्म की स्मृति होती है । सभी का क्षयोपशम समान नहीं होता। जैसे एक स्थान-एक शहर से दूसरे स्थान पर आकर बस जाय, कुछ समय व्यतीत होने पर सभी को एक जैसी पूर्व स्मृति नहीं रहती। कुछ व्यक्तियों की स्मृति लम्बा समय होने पर भी ताजी रहती है, कुछ भूल जाते हैं । इसी प्रकार जैसी क्षयोपशम आराधना वैसी स्मृति । कुछ व्यक्तियों को अपनी बचपन की सभी बातें बिलकुल ताजा होती है लेकिन कुछ लोग भूल जाते हैं । जब इसी जन्म का स्मरण सभी को समान नहीं होता तो परलोक से आने वाले सभी को पूर्व जन्म की स्मृति कैसे रह सकती है, जितनी जिसकी आत्मा जागृत, अप्रमत्त होती है उतना ही स्मृतिज्ञान तेज होता है ॥५९॥
न चैतेषामपि ह्येतदुन्मादग्रहयोगतः । सर्वेषामनुभूतार्थस्मरणं स्याद् विशेषतः ॥६०॥